योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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‘दृष्टि जिसे हम आँख भी कहते हैं हमारे पूरे शरीर को सुरक्षा प्रदान करती है और उस दृष्टि को बहुपयोगी बनाता है दर्शनशास्त्र, जिसे हमें पढ़ने,समझने और अपने जीवन में उतारने की जरूरत है,तभी हम जीवन का आनंद और दुनिया को सही अर्थ में समझ पाएंगे!’
इस जिज्ञासा या व्याख्या पर मूलभूत उपलब्ध जानकारी यूँ है-‘दृष्टि’ का अर्थ होता है-अवलोकन,निगाह,नज़र,देखने की शक्ति, दींठ,टक, प्रकाश आदि।
आँख तो एक अवयव या इंद्रिय है,जिसका कार्य है देखना या नज़र डालना। अत: आँख और दृष्टि में मुझे तो कारक और कार्य का ही फर्क लगता है। तब विद्वान् विचारक का सोचना भी सही है कि ‘चलते-चलते जब मैंने एक दृष्टि (नजर) डाली तो दूर-दूर तक क्षेत्र जलमग्न दिखा’ या चलते-चलते जब मैंने आँख घुमाई तो दूर-दूर तक क्षेत्र जलमग्न मिला।’ यहाँ भी काम करनेवाला या करनेवाली आँख है और उसने जो कार्य किया,वह दृष्टि या नजर है।
आयुर्विज्ञान की दृष्टि में ‘दृष्टि स्तनपोषी प्राणियों का दृक्-तंत्र है:इसमें आँखें,आँखों और मस्तिष्क को जोड़ने वाली तंत्रिकाएँ तथा मस्तिष्क सम्मिलित हैं।
संत कवि सूरदास का यह प्रसिद्ध गीत है-
‘अखियाँ हरि दरसन की प्यासी।
देख्यो चाहति कमलनैन को निसि दिन रहति उदासी॥
आए ऊधो फिरि गये आँगन,डारि गए गर फाँसी।
केसरि तिलक मोतियन की माला, वृन्दावन के वासी॥
काहू के मन की कोउ जानत,लोगनि के मन हाँसी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ,करवत लैहो कासी॥
कृष्णभक्त कवि सूरदास ने और उसके पहले कुरुवंश के राजा धृतराष्ट्र ने भी आँख न होने के कारण आँख का मोल समझा था। बाद में तो आँखवालों ने भी आँख का मोल समझते हुए उनका वर्णन किया है:
‘कागा सब तन खाइयो चुन चुन खाइयो मांस।
दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस॥’
आँख को इस नज़र से भी आँका गया है:
‘अमिय,हलाहल मद भरे,सेत,स्याम,रतनार।
जियत,मरत,झुकि-झुकि परत,जेहि चितवत इक बार॥'(कवि रसलीन)
आँख या दृष्टि की महत्ता सब दिन से रही है,जैसा कि पंक्तियों से स्पष्ट होता है। बचपन में तो हम आँख से भली-भाँति देख लेते हैं और किसी को पढ़ाई के समय कोई दृष्टि-दोष होता है तो वह सलाह अनुसार चश्मा लगा लेता है और दो के बदले चार नैनवाला बन जाता है,पर जवानी में कहीं नैन चार हो गए तो उसको और कुछ नहीं सूझता। ५० वर्ष से ऊपर तो नंगी आँख से देखने में गड़बड़ी गर शुरू होती है, तो चश्मा लगाने की आवश्यकता आ पड़ती है और अधिक उम्र होने पर मोतियाबिंद का भी प्रभाव पड़ जाता है। दृष्टि को देखने या समझने का अपना-अपना तरीका होता है। तब देखिए आँख का व्यवहार कैसे-कैसे किया गया है:आँख दिखाना-गुस्सा प्रकट करना,आँख का तारा होना-बहुत प्रिय होना,आँख के सामने-प्रत्यक्ष के समान लगना एवं आँख खुलना-जागना;वास्तविकता से अवगत होना;भ्रम दूर होना।
अब आँखों की जादूगरी की बात करते हैं, कैसे ये नशीली आँख की पलकें हमें दीवाना बना देती हैं। कवि की कलम भी चलने लगती है-इन आँखों की गहराई में डूब कर,हर कोई दीवाना-सा हो जाता है जब अपनी महबूबा की आँखों को देखता है। जाने-माने शायर शहरयार द्वारा फिल्म ‘उमराव जान’ में लिखे गीत के बोल आज भी दिलों पर छाए हैं-
“इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
मस्ताने हज़ारों हैं,
इक तुम ही नहीं तन्हाँ उल्फ़त में मेरीl
रुसवा,इस शहर में तुम जैसे दीवाने
हैं।”
‘दृष्टि’ (विजन) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का भाग है। इसमें प्रकाशित संकेतों को ग्रहण करने, उन्हें परस्कृत करने और उनके आधार पर क्रिया या प्रतिक्रिया करने की क्षमता प्रदान करती है।’
यह भी जानने की बात है कि ‘जन्म के समय आँखें एक-दूसरे से संबद्ध नहीं होतीं,वरन् दो स्वतंत्र ज्ञानेंद्रियों के समान रहती हैं।
अब,दर्शन क्या है,तो-‘दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्)’
अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है।
‘दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है,जो परम् सत्य और सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिए एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व,तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है।’
यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने- अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन- दर्शन को अपनाया।
भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित दर्शन है,इसकी जड़ तक जाना असम्भव है किन्तु पश्चिमी अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने लिखित रूप से किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत् तथा स्वयं दर्शक की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गए और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा।
भारतीय दर्शन का तात्पर्य भारतीय उपमहाद्वीप की दार्शनिक परम्पराओं से है।एक परम्परागत वर्गीकरण विभाजित रूढ़िवादी(आस्तिक)और विधर्मिक(नास्तिक) दर्शन के विद्यालयों,तीन वैकल्पिक मानदंडों में से एक पर निर्भर करता है। वहाँ रूढ़िवादी (आस्तिक) भारतीय के छह प्रमुख विद्यालय हैं-हिंदू दर्शन-न्याय,वैशेषिक,सांख्य,योग, मीमांसा और वेदांत,और ५ प्रमुख विधर्मिक (नास्तिक)विद्यालयों के जैन,बौद्ध,आजीविक ,अजनाना और चार्वाक।
इतनी बातों से यह स्पष्ट होता है कि आँखों से जो हम प्रत्यक्ष देखते हैं या पहले देखे हुए को याद करते हैं,तो वह दृष्टि है और किसी विषय को जब हम मन की आँख से देखते हैं तो वह दर्शनशास्त्र के अंतर्गत ‘दर्शन’ है।
आशा है,अब स्पष्ट हो गया होगा कि कृष्ण-भक्त सूरदास ने क्यों कहा कि, ‘अखियाँ हरि दरसन को प्यासी।’
परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”