कुल पृष्ठ दर्शन : 92

You are currently viewing राजनीतिक चंदे की पारदर्शी व्यवस्था जरूरी

राजनीतिक चंदे की पारदर्शी व्यवस्था जरूरी

ललित गर्ग
दिल्ली
**************************************

वर्ष २०२४ के आम चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का मुद्दा एक बार फिर गरमा रहा है। लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति या कहें समस्या उस धन को लेकर है, जो चुपचाप, बिना किसी लिखा-पढ़ी के दलों, नेताओं और उम्मीदवारों को पहुंचाया जाता है, यानी वह काला धन, जिससे देश के बड़े राजनीतिक आयोजन चलते हैं राजनीतिक रैलियाँ, सभाएं, चुनाव प्रचार होता है। उम्मीदवारों के साथ-साथ मतदाताओं को लुभाने एवं उन्हें प्रलोभन देने में इस धन का उपयोग होता है। जब से चुनावी बॉन्ड से दलों को चंदा देने का प्रचलन शुरु हुआ है, दलों को इससे मिलने वाली राशि में काफी इजाफा हुआ है। देश के ७ राष्ट्रीय और २४ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की ओर से सार्वजनिक किए गए आमदनी के ब्योरे से यह खुलासा हुआ है। एडीआर द्वारा किए गए इस ब्योरे के विश्लेषण से पता चला है कि वर्ष २०१७-१८ में जब से चुनावी बॉन्ड योजना शुरू हुई, तब से अब तक राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदे की कुल रकम १६,३४७ करोड़ रुपए में ५५.९ फीसदी हिस्सा चुनावी बॉन्ड का है। कारपोरेट चंदे का हिस्सा महज २८.७ फीसदी और अन्य स्रोतों से प्राप्त रकम मात्र १६.०३ फीसदी है।
किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना आज राजनीति का सामान्य लक्षण हो गया है। अगर कोई चुनाव जीत जाता है तो उसने चाहे जितने गलत और चाहे जितने क्षुद्र तरीके अपनाए हों, उसे कुछ भी गलत नजर नहीं आता, उसे कोई अपराध-बोध नहीं सताता, वह मान कर चलता है कि उसके गुनाहों पर परदा पड़ गया है, जबकि लोकतंत्र तभी फूलता-फलता है जब चुनाव ईमानदार, स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी हों। दोहरा राजनीति चरित्र लोकतंत्र के लिए सबसे घातक है और ऐसे ही चरित्र की निष्पत्ति है चंदे का एक नया स्वरूप चुनावी बॉन्ड। चंदा देने वाले कॉरपोरेट ऐसे धारक बॉन्ड खरीद सकते हैं और बिना पहचान बताए राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकते हैं। चुनावी बॉन्ड आरबीआई जारी करता है। राजनीतिक पार्टियों को दान देने वाला बैंक से बॉन्ड खरीद सकेगा और दान देने वाला किसी भी दल बॉन्ड दे सकेगा पर राजनीति चंदे पर नियंत्रण एवं उसकी पारदर्शिता कैसे संभव होगी ? समस्या और गहरी होती हुई दिखाई दे रही है।
वर्ष २०१७ में वित्त अधिनियम में बदलाव कर कंपनियों के लिए ३ साल के कुल लाभ का ७.५ फीसदी चुनावी चंदा देने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई थी। उसके बाद कॉरपोरेट चंदे में कमी और चुनावी बॉन्ड से चंदे में बढ़ोतरी का रुझान दिख रहा है। चुनावी चंदा ७४८ फीसदी बढ़ा है तो कॉरपोरेट चंदा मात्र ४८ फीसदी। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि कॉरपोरेट चंदे की रकम अब बॉन्ड की ओर परिवर्तित हो रही है। जाहिर है, नियम में बदलाव से कंपनियों को अपनी सफेद कमाई का हिस्सा चुनावी चंदे में खर्च करने की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। इन्हें पारदर्शिता की कमी के चलते चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक दलों को उपकृत करना मुफीद लगने लगा है। उद्योग जगत के सहयोग के बिना चुनावी बॉन्ड के हिस्से में इतनी बड़ी रकम आना संभव नहीं है। तथ्य यह भी है कि चुनावी बॉन्ड से किसने किस दल को कितनी रकम दी है, इसका खुलासा करने का प्रावधान है ही नहीं। पिछले छह साल में चुनावी बॉन्ड से भाजपा को ५२७१.९७ करोड़ रुपए (५२ फीसदी), कांग्रेस को ६१.५४ और तृणमूल कांग्रेस को ९३ .२७ फीसदी रकम हासिल होना दानदाताओं की सहूलियत को ही दर्शाता है। इसे अच्छा चलन माना जा सकता था, बशर्ते समूची प्रक्रिया पारदर्शी होती, लेकिन राजनीतिक दलों की सुविधा के लिए ऐसी पारदर्शिता देखने को नहीं मिलती है।
अधिकतर राजनीतिक दलों का मकसद बस किसी तरह चुनाव जीतना और सत्ता हासिल करना हो गया है। चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, और सत्ता में आने पर पैसा बनाने के सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। देश के धन को जितना अधिक अपने लिए निचोड़ा जा सके, निचोड़ लो। देश के १०० रुपए का नुकसान हो रहा है और हमें १ रुपया प्राप्त हो रहा है तो बिना एक पल रुके ऐसा हम कर रहे हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। चुनावी बॉन्ड व्यवस्था का एक उद्देश्य राजनीति में भ्रष्टाचार समाप्त करना था तो राजनीतिक दलों को चंदों में पारदर्शिता से दूर रखने की व्यवस्था आखिर क्यों कर की गई ? बात-बात में तलवारें खींचते रहने वाले राजनीतिक दल अपने आर्थिक हित-अहित का ध्यान मिल-जुलकर ही रखते हैं। इस तरह तो भ्रष्टाचार का खात्मा मुश्किल है।
राजनीति का अपराधीकरण इसी प्रक्रिया के दौरान हुआ है। पहले सिर्फ कांग्रेस को इसका दोषी समझा जाता था, लेकिन आज शायद ही कोई राजनीतिक दल इससे बचा हो, जिस पर दाग नहीं लगा हो। एक जमाने में राममनोहर लोहिया कांग्रेस को ‘भ्रष्टाचार की गंगोत्री’ कहा करते थे, लेकिन आज कौन-सी पार्टी है जो सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पालन कर रही है ? सोचनीय बात यह है कि अब भ्रष्टाचार के दोषी शर्मसार भी नहीं होते। इस तरह का राजनीतिक चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। राजनीति की बन चुकी इस मानसिकता और भ्रष्ट आचरण ने पूरे लोकतंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। यह रोग राजनीति को इस तरह जकड़ रहा है कि, हर राजनेता लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।

राजनीति करने वाले सामाजिक उत्थान के लिए काम नहीं करते, बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, ‘मतों की।’ ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में सक्रिय हैं तो उनके प्रयत्नों, नीतियों एवं योजनाओं में भी वैसा होता हुआ दिखाई देना चाहिए। कहीं उनकी भी कथनी और करनी में अन्तर न आ जाए ? राजनीतिक चंदे को नियंत्रित करते एवं उसे पारदर्शी बनाने की वकालत करते-करते चुनावी बॉण्ड कहां से आ गया ?, क्योंकि सवाल दुहरे मानदंडों का उतना नहीं, जितना संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति राजनीतिक वर्ग के रवैए का है। इस समय प्रत्येक राजनीतिक पार्टी चाहती है कि जब वह सत्ता में हो, उसके ऊपर किसी का अंकुश न हो, न किसी तरह की लोकतांत्रिक मर्यादा का। ये सब उसे तभी याद आते हैं, जब वह सत्ता से बाहर होती है। राजनीतिक चंदे के नाम पर लोकतंत्र को दूषित करने की कोशिशों पर विराम लगना जरूरी है।

Leave a Reply