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कुछ ख्वाब अधूरे से…

डॉ.मधु आंधीवाल
अलीगढ़(उत्तर प्रदेश)
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मेरा वजूद कोई छोटी कहानी नहीं था, बस पन्ने जल्दी भर गए…
जिन्दगी में ख्वाब देखने का सबको अधिकार है,पर जरूरी नहीं वह पूरे हो जाएं। मेरी भी जिन्दगी इसी तरह की है। आज ये वाक्य देख कर ५० साल पहले की सारी बातें चल चित्र की तरह घूमने लगी। एक तितली की तरह उड़ती सपने देखने ही शुरू किए कि मैं एक बहुत बड़े होटल को बनाऊँगी किसी हिल स्टेशन पर। वहाँ मेरा रौबदार व्यक्तित्व होगा,बहुत से पर्यटकों से मुलाकात होगी। एक सनक थी मेरे अन्दर, क्योंकि बहुत उपन्यास पढ़ती थी,पर सब खो गए। मात्र १५ साल की उम्र में पिताजी ने शादी कर दी,जबकि शहर की बच्ची,बहुत अच्छा परिवार, भाई-बहनों में सबसे छोटी। भाई और उनका परिवार यू.एस.ए में रहता था। माँ भी पुराने समय की मिडिल थी,पर पता नहीं पिताजी को शादी की इतनी जल्दी क्यों थी। शादी होकर ससुराल पहुँचे,ग्रामीण परिवेश छोटे ननद-देवर,वहाँ हम बड़े हो गए। हाँ,पति एम.एस-सी. गोल्ड मेडलिस्ट थे। मेरी माँ की हार्दिक इच्छा थी कि,मैं पढूं। मेरे पतिदेव ने उस इच्छा का बहुत सम्मान रखा। मुझे बी.ए.,एम.ए.,बी.एड.,पी-एच.डी., एल.एल.बी कराया। बच्चों के साथ मेरी शिक्षा भी चलती रही। मैं अपना सपना तो नहीं पूरा कर पाई,पर अपने बच्चों को उनके जो मन में था, स्वतंत्र रखा। उनको डॉक्टर,इंजीनियर बना दिया।
आज जब सब जिम्मेदारी निपटा कर अपने लिए सोचा तो लगा शायद ख्वाब पूरे ना होने के लिए भी देखे जाते हैं,पर आज मैं राजनीति में हूँ,इतनी डिग्री भी हैं सब पतिदेव के सहयोग से और बहुत कुछ बच्चों के सहयोग से। मेरा बेटा हमेशा मुझे कहता है-“कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता।”
ये सत्यता भी है,क्योंकि हिल स्टेशन पर होटल ना सही,घर की रसोई को ही होटल समझ लेती हूँ।

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