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वे धन्यवाद नहीं ले रहे…

धर्मपाल महेंद्र जैन
टोरंटो (कनाडा)
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मैं अपने समय के प्रतिष्ठित होते-होते बच गए व्यंग्यकार के साथ बैठा हूँ। उनका जेनेरिक नाम व्यंका है,ब्रांड नेम बाज़ार में आया नहीं, इसलिए अभी उनका नाम बताने में दम नहीं है। यह चर्चा मोबाइल पर रिकॉर्ड हो रही है।

प्र.: व्यंका जी,कभी आपका नाम हो जाए और आप अमर हो जाएँ,उसके मद्देनज़र मैं जानना चाहता हूँ कि आपका जन्म कहाँ और कब हुआ ?
उ.: धर्म जी,आपका आभारी हूँ,आपने सही समय पर मेरी प्रतिभा को परख लिया। मैं पहली बार साक्षात्कार (इंटरव्यू) दे रहा हूँ, कोई भूल-चूक हो जाए तो ठीक कर लें। मेरा जन्म घर पर हुआ। उस जमाने में दाई घर पर ही प्रसव करा देती थी। सरकारी अस्पताल डॉक्टर साब के घर से ही चलता था,तो लोग छोटी-छोटी बातों के लिए फीस नहीं देते थे। जन्म कब हुआ,इस पर बड़ा विवाद है। घर में घड़ी नहीं थी। पिताजी कहते हैं ‘सूरज भरपूर चढ़ गया था,मैं उठ गया था,तब यह जन्मा।’ माँ कहती है ‘मैंने जन्मा तो मैं जानती हूँ,तब पौ भी नहीं फटी थी,तुम तब भी खर्राटे भर रहे थे जब यह जन्मा।’ अप्रैल की पहली तारीख को मेरा जन्म दिवस विश्वभर में हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

प्र.: आप किस तरह के लेखक हैं और आप क्यों लिखते हैं ?
उ.: मैं बहुत अच्छा लेखक हूँ। मित्रगण मुझे लेखक मान लेते हैं। सम्पादकगण तटस्थ हैं। बस,लोचा आलोचकों के साथ है। वे गिनीज बुक जैसे हैं,लेखकों की सूची में मेरा नाम नहीं डाल रहे। जाकी रही भावना जैसी…। मैं क्यों लिखता हूँ,यह पेशेवर (प्रोफेशनल) प्रश्न है। कम्प्यूटर पर सॉलिटेयर खेलने से तो लिखना अच्छा है। सॉलिटेयर खेलते श्रीमती जी देख लें तो आदिकालीन काम पकड़ा देती हैं।

प्र.: आदिकालीन काम मतलब ?
उ.: आदिकालीन काम मतलब जो काम आदिकाल से हो रहे हैं,जैसे झाड़ू लगाना, बर्तन धोना,पोंछा मारना,जाले साफ करना। मुझे समकालीन काम करना पसंद है।

प्र.: समकालीन काम मतलब ?
उ.: अरे यार,आप किस दुनिया में रहते हैं। समकालीन काम मतलब फेसबुक, वाट्सऐप,ट्विटर,यूट्यूब,इंस्टाग्राम आदि। और भी हैं,पर मैं इन पर ही इतना बिज़ी रहता हूँ कि मत पूछो।

प्र.: लोग आपको फोगटिया लेखक कहते हैं, इस बारे में आप क्या कहेंगे ?
उ.: जो इस तरह का पतित लांछन लगाते हैं, उन्हें ख़ुद के गिरेबान में झाँकना चाहिए। हिन्दी की समृद्ध साहित्य परम्परा लघु पत्रिकाओं से है। वे आपको छाप ही दें तो आपको उनका आभारी होना चाहिए। मानदेय लेना-देना हमारी संस्कृति नहीं है। मुफ़्त में लिखने वालों को फोगटिया नहीं कहते,उन्हें साधुवादी कहना श्रेयस्कर होगा।

प्र.: आप पत्र-पत्रिकाओं में कम,अपनी ई-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स पर ज़्यादा हैं। कोई खास वजह ?
उ.: मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं से वृद्ध साहित्यकार रोमांस लड़ाते हैं। यह नई तकनीक (टेक्नॉलॉजी) का ज़माना है। अब छपने के लिए किसी का मोहताज़ होने और इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं। लिखो और तत्काल अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर दो, फेसबुक पर शेयर कर दो। मेरे पांच हज़ार अनुसरणकर्ता (फॉलोअर) हैं,घंटे भर में दो सौ पसंद (लाइक) आ जाते हैं।

प्र.: लोग आप पर व्यंग्य करने के लिए फॉलोअर बनते हैं,आपके व्यंग्य पढ़ने के लिए नहीं। ‘लाइक’ का क्या,लोग बिना पढ़े ही लाइक कर देते हैं !
उ.: यह सरासर गलत है। आपको अपने पाठकों पर विश्वास होना चाहिए। वे लाइक करते हैं तो सब सोच-समझ कर करते हैं। मैं उनको लाइक करता हूँ तो वे मुझे लाइक करते हैं।

प्र.: आपका प्रतिनधि संकलन या कोई किताब देखने को नहीं मिली !
उ.: कई प्रकाशक बात (अप्रोच) करते हैं,पर मैं स्थापित प्रकाशक को ही मौका देना चाहता हूँ। चाहे वे जमानत ज़ब्त होने के चक्कर में कुछ डिपॉज़िट या सहयोग राशि ले लें। ‘दानपीठ’ वालों से सालों से बात चल रही है,वहाँ बहुत-से लेखक प्रतीक्षा सूची में हैं,मैं भी हूँ। नाम तो वहीं होता है। आगे चलकर पुरस्कार भी वहाँ से लेना है।

प्र.: आप जीवन-यापन के लिए क्या करते हैं। लोग कहते हैं,आप लिखते कम,झक ज़्यादा मारते हैं ?
उ.: यह कैसा प्रश्न है? हिन्दी के लेखक को कुछ न कुछ तो करना पड़ता है। आम लेखक का जीवन-यापन लिखने से हो सकता है क्या ? जलने वालों का क्या है,सभी सरकारी नौकर झक मारते हैं,मैं अकेला थोड़े ही हूँ।

प्र.: रोज़ ही आपके छोटे-छोटे पोस्ट, कॉपी-पेस्ट और टैग शैली में आते रहते हैं। आप उपन्यास क्यों नहीं लिखते ?
उ.: उपन्यास दिखने में ठीक लगता है,पर हिन्दी के पाठकों में उपन्यास पढ़ने का धैर्य है क्या ? फिर,उपन्यास लिखने और उसे समेटने में बहुत समय लगता है। इतने समय सोशल मीडिया से दूर रहना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकता है। जीवनदायी गॉसिप का मसाला तो वहीं से मिलता है।

प्र.: आपके परिचय में पच्चीस से अधिक पुरस्कारों की सूची है। प्रथमदृष्टया ये मोहल्ले या कस्बा स्तर के पुरस्कार लगते हैं,इनमें कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार नहीं लगता ?
उ.: अब पुरस्कार-दाता अपना पुरस्कार प्रतिष्ठित नहीं करवाए तो इसमें हमारा क्या दोष! पुरस्कार प्रतिष्ठित करवाने में बहुत माल देना पड़ता है,विज्ञापन देने पड़ते हैं। रही बड़े पुरस्कारों की बात,तो पद्मश्री के लिए मेरा नाम हर साल जाता है,गृह मंत्रालय के पास हर साल सत्रह हज़ार से ज़्यादा नाम आते हैं,वे भी क्या करें। वैसे मुझे पद्मश्री बूचड़लालजी की पुत्रवधू की स्मृति में स्थापित मान्यता पुरस्कार मिला है। इस अलंकरण में पद्मश्री तो लिखा है।

प्र.: सुना है आप कुछ संस्थाओं से जुड़े हैं, आपने भी कुछ पुरस्कार स्थापित किए हैं।
उ. मैं अखिल विश्व हिन्दी फेडरेशन एवं ‘ग्लोबल हिन्दी राइटर्स ऑनलाइन’ का संस्थापक अध्यक्ष हूँ। इस सदी में साहित्य और साहित्यकारों का बड़ा अवमूल्यन हुआ है। जिस तेज़ी से साहित्यकारों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है,पुरस्कारों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। एक श्रीफल,शाल और मान-पत्र दे कर हम वंचित साहित्यकारों का सम्मान कर रहे हैं। जो मुझे पुरस्कार दिलवाते हैं,मैं उनको दिलवाता हूँ,परस्परोपग्रहो जीवानाम्, सभी जीव परस्पर सहायता कर खुश रहते हैं।

प्र.: आपने अपना नाम बहुत बड़ा रखा है। क्या आपको नहीं लगता कि बड़े नाम पढ़ने में पाठकों को असुविधा होती है ?
उ.: जी नहीं,पाठकों को इसमें क्या असुविधा! नाम कौन पढ़ता है,सब नाम देखते भर हैं। आपने सुने होंगे ये नाम- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, गजानन माधव मुक्तिबोध। बड़ा नाम सबको ध्यान रह जाता है। ज्ञान या प्रेम नाम बड़े ‘कॉमन नेम’ हैं।

प्र.: आपको कौन-से समकालीन साहित्यकार प्रिय हैं,आप उनको कितना पढ़ते हैं ?
उ.: मैं कुछ साहित्यकारों का नाम लेकर शेष को मायूस करना नहीं चाहता। जो साहित्यकार भगवान को प्रिय रहे,वे मुझे भी प्रिय रहे। जो अभी प्रभु को प्रिय होना शेष हैं, मैंने उनको विचाराधीन रखा हुआ है। मैं भगवान से अलग हूँ क्या! जहाँ तक मेरे पढ़ने का सवाल है,अपना लिखा ही पढ़ने का समय नहीं है,तो दूसरों का कब पढूं।

प्र.: तो व्यंग्य लेखन में आपका क्या स्थान है, और आगे क्या संभावनाएं हैं ?
उ.: देखिए,हरिशंकरजी परसाई चप्पल पहनने के बाद पांच फीट साढ़े सात इंच से कुछ ऊपर थे। शरद जी जोशी भी पांच फीट साढ़े सात इंच से कुछ ऊपर लगते थे। अब पांच फीट सात इंच से कुछ ऊपर की साइज़ में ढेर सारे व्यंग्यकार हैं। मैं भी पांच फीट सात इंच तक तो पहुँच जाऊँगा। आजकल लंबाई बढ़ाने के लिए योगा कर रहा हूँ। लोग मुझे परसाई जी या जोशी जी के समकक्ष न मानें,समलंब तो मानना ही पड़ेगा।

प्र.: आप अपनी रचना पर कितनी मेहनत करते हैं,या सब स्वतः हो जाता है ? दरअसल,आपकी रचना प्रक्रिया क्या है?
उ.: रचना नदी की तरह बहती आती है,तब मैं खुद को सुनाने लगता हूँ। खुद जोर से बोलो और सुनो तो सीधा दिल तक पहुँचता है। मैं अपना बड़बड़ाना रिकॉर्ड कर लेता हूँ। फिर अच्छा मुहूर्त देख कर टाइप करना शुरू करता हूँ। ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए टाइप करना ज़रूरी है। अक्षर ढूँढ-ढूँढ कर एक ऊँगली से टंकित करता हूँ। आजकल रचना प्रक्रिया कठिन और श्रम-साध्य हो गई है। रचना पूरी होते ही मैं घरेलू सम्पादक के आगे-पीछे घूमना शुरू कर देता हूँ। वे समझ जाती हैं और आग्रहपूर्वक मेरी रचना सम्पादित कर देती हैं।

प्र.: जिन रचनाकारों को घरेलू सम्पादक सुलभ न हों,तो वे क्या करें ?
उ.: सफल होने के लिए,साहित्यकार के पास अपना सम्पादक होना ही चाहिए। जिनके पास घरेलू सम्पादक न हों,उन्हें तदर्थ सम्पादक रख लेना चाहिए। हिन्दी साहित्य में ‘वह’ की भूमिका पर ख़ूब लिखा गया है,उसे पढ़ना चाहिए।

मैंने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया,और खड़ा हो कर उन्हें साक्षात्कार के लिए धन्यवाद दे रहा हूँ। वे धन्यवाद नहीं ले रहे, कह रहे हैं,अभी और इंटरव्यू लो…।
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