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स्वभाषाओं के बिना शिक्षा नीति अधूरी

निर्मलकुमार पाटोदी
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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नई शिक्षा नीति की अनेक विशेषताओं में से एक बड़ी विशेषता कौशल के आधार पर विद्यार्थी को आत्मनिर्भर बनाने की है। इसमें पाठ्यक्रम को कम रखते हुए अन्य गतिविधियों को जगह दी गई है। अब शिक्षा कोरी दिमाग़ी और किताबी न होकर जीवन का निर्माण करने के लक्ष्य को भी पूरा करेगी। १२६ पृष्ठों में समाहित नई शिक्षा नीति में मातृभाषा,राज्य भाषा सिखाने का उल्लेख तो है,किंतु स्वभाषाओं की अनिवार्यता नहीं होने से नई शिक्षा नीति अपंग होने का ख़तरा है। सरकार शिक्षा के साथ शिक्षितों के भविष्य से जुड़े इस व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान नहीं दे सकी है कि,राज्यों और केन्द्र सरकार का उच्च स्तर पर मूल कामकाज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी भाषा में चल रहा है। शासकीय सेवाओं में बिना अंग्रेज़ी के पहुंचना संभव नहीं है। वहां राजभाषा हिंदी अनुवाद की भाषा तक सीमित है। जब राज्यों और केन्द्र सरकार में भारतीय भाषाओं में कामकाज होता ही नहीं है,तब कोई अभिभावक क्यों कर अपने बच्चों को मातृभाषा,राज्य की भाषा में पढ़ाने की मूर्खता करेगा ? लॉर्ड मैकाले सूझ-बूझ से अंग्रेज़ सरकार (भारत) में प्रशासन,शिक्षा और न्याय के क्षेत्र में अंग्रेज़ी भाषा को स्थापित करने में सफल हुए थे,ठीक उसी तरह से स्वाधीन भारत में सरकार चलाने के लिए अंग्रेज़ी यथावत कायम है। सभी राज्य सरकारें जानती है कि उनके यहाँ के युवकों का भविष्य अंग्रेज़ी में शिक्षा प्रदान करने ही से सुरक्षित है। इसीलिए उन्हें अपने राज्य की भाषाओं की परवाह नहीं है। उनके लिए हिंदी राजनीतिक विरोध हथियार है। उत्तरप्रदेश सरकार ने भी राज्य में अंग्रेज़ी भाषा में शिक्षा प्रदान करने का जो निर्णय लिया है,उसके पीछे राज्य के युवकों को भारत सरकार में पहुँचने का आधार प्रदान करना है।
उपराष्ट्रपति एम. वेंकैय्या नायडू ने अपने एक लेख में भले ही यह व्यक्त किया है-“हमारे समाज का निर्माण इसी मान्यता के आधार पर हुआ है कि भाषा हमारी संस्कृति की प्राणवायु है,जो सभ्यता को आकार देती है। अध्ययन दर्शाते हैं कि बच्चों को यदि उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए तो सबसे बेहतर नतीजे हासिल होते हैं। जापान, स्वीडन,चीन और फ्राँस जैसे तमाम देशों में न केवल स्कूली,बल्कि उच्च शिक्षा भी मातृभाषा में मिलती है। यह कहा जाता है मातृभाषा से संवरेगा शिक्षा का स्वरूप।”,पर यह कथन कहने-सुनने में अच्छा लगता है परंतु जनता के लिए चुनी हुई सरकारों के नीति निर्माताओं की दृष्टि में अहितकर है।
नई शिक्षा नीति को सरकार की स्वीकृति मिल चुकी है। उसे क्रियान्वित करने की प्रक्रिया चल रही है। सभी राज्यों की सरकारों और राजनीतिक दलों की व्यापक प्रतिक्रिया सामने आना बाक़ी है। उनके समक्ष अभी आत्म-चिंतन करने का अवसर है। उन्हें विचार करना चाहिए कि,देश की प्राचीन संस्कृति,सभ्यता,जीवन पद्धति,ज्ञान-विज्ञान और समृद्ध भाषाओं की विरासत को सुरक्षित और संरक्षित रखने के दायित्व का निर्वाह कैसे होगा ? वे इस ओर ध्यान नहीं देंगे तो,धीरे-धीरे समुचित उपयोग में नहीं आने से विलुप्त हो रही अनेक भाषाओं की तरह अपने देश की भाषाओं का अस्तित्व भविष्य में असुरक्षित हो जाएगा ?
स्वाधीनता के तिहत्तर वर्षों के बाद स्पष्ट देखने में आ रहा है कि युवा पीढ़ी अंग्रेजी भाषा और अंग्रेज़ीयत से इतनी अधिक प्रभावित हो चुकी है कि उसे अपनी भाषाओं में पढ़ने,लिखने और बात करने में असुविधा हो रही है। उनके मन मस्तिष्क में अपनी भाषाओं के अखबार,साहित्य,अध्यात्मिक ग्रंथ और उत्सवों के प्रति जिज्ञासा ही नहीं रही है। उनकी बोलचाल में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। गिनती जैसे -सैतीस,छप्पन,बहोत्तर,छियासी से वे अनभिज्ञ हैं। मैकाले तो यही चाहता था कि भारतीय अपनी जड़ों से विमुख हो जाएँ।
मैकाले द्वारा थोपी गई अंग्रेज़ी भाषा और उस भाषा के माध्यम की शिक्षा नीति से नई शिक्षा नीति को अप्रभावित करने का समय आ गया है। उसकी जकड़न की गाँठों को तोड़ कर मुक्ति पाने से ही स्वाधीन राष्ट्र की ताज़ी हवा का रसपान किया जा सकेगा। यह कैसी विडंबना है कि स्वाधीन भारत में गांधी बाबा को मुद्रा पर अंकित कर दिया गया है,परंतु उस गांधी के विचारों को अपनाने और कर्म में बदलने की ओर ध्यान नहीं दिया जा सका है। गांधी की जन्म शताब्दी को पचास वर्ष निकल गए हैं। उनकी डेढ़ सौ वीं जन्म जयंती सामने हैं। पिछले अनुभवों के प्रकाश में उनके विचारों क्रिर्यान्वित करके लाभान्वित हुआ जा सकता है। नई शिक्षा नीति के लिए गांधी के विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं। इस पर विचार तो किया ही जा सकता है। शिक्षा में मातृभाषा,राज्यों की भाषाएं और देश की प्रमुख भाषा हिंदी की उपयोगिता पर गांधी का कहना था-“सच्चा शिक्षित तो वही मनुष्य कहा जा सकता है’जो अपने शरीर को अपने वश में रख सकता हो और जिसका शरीर अपना सौंपा हुआ काम आसानी और सरलता से कर सकता हो। जो विद्या हमें मुक्ति से दूर भगा ले जाती हो,वह त्याज्य है, राक्षसी है,अधर्म है। देशी भाषा का अनादर राष्ट्रीय अपघात है।”
माता का दूध पीने से लेकर जो सँस्कार और मधुर शब्दों द्वारा जो शिक्षा मिलती है उसके और पाठशाला की शिक्षा के बीच संगत होना चाहिए। परकीय भाषा से वह श्रंखला टूट जाती है और उस शिक्षा से पुष्ट होकर हम मातृद्रोह करने लग जाते हैं।
नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और राज्यों की भाषाओं को अनिवार्य नहीं बनाने की जो गंभीर भूल की जा रही है,उसे गांधी के विचारों के आधार पर बिना विलंब किए सुधारना आवश्यक है। सवाल युवा पीढ़ी के भविष्य से जुड़ा है। उसके जीवन के बीस वर्ष के भविष्य को निर्धारित करने जा रही नई शिक्षा नीति में देश की भाषाओं की उपेक्षा नहीं होना चाहिए। गांधी ने पूरे में घुमने के बाद कहा था-“इस विदेशी भाषा के माध्यम ने लड़कों के दिमाग़ को शिथिल कर दिया है और उनकी शक्तियों पर पर अनावश्यक जोर डाला,उन्हें रट्टू और नक़लची बना दिया, मौलिक विचारों और कार्यों के लिए अयोग्य कर दिया। अपनी शिक्षा का सार अपने परिवारवालों तक जनता तक पहुँचाने में असमर्थ बना दिया है। इस विदेशी माध्यम ने हमारे बच्चों को अपने ही घर में पूरा पक्का परदेशी बना दिया है। अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की बढ़ती को रोक दिया है। यदि मेरे हाथ में मनमानी करने की सत्ता होती तो मैं आज से ही विदेशी भाषा के द्वारा हमारे लड़के और लड़कियों की पढ़ाई बंद कर देता और सारे शिक्षकों और अध्यापकों से यह माध्यम तुरंत बदलवाता या उन्हें बर्खास्त करता। मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतज़ार न करता। वे तो परिवर्तन के पीछ-पीछे चली आएंगी।
अंग्रेज़ी के मोह से छूटना स्वराज्य का आवश्यक और अनिवार्य तत्त्व है।”

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