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आखिर सुख निरंतर क्यों नहीं होता ?

ललित गर्ग
दिल्ली

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जीवन में सुख और दुःख का चक्र चलता रहता है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन-यही क्रम सुख और दुःख का भी है। हमने खेतों में अरहट चलते हुए देखा है। नीचे से पानी भर कर आता है और ऊपर आकर खाली हो जाता है। यह क्रम चलता है। इसी प्रकार काल का चक्र चलता है,अवस्थाओं का चक्र चलता है। सुख है तो दुःख भी है। दुःख है तो सुख भी। ना केवल सुख हमेशा साथ रहता है और ना दुःख । चिंतक खलील जिब्रान कहते हैं,-‘कुछ कहते हैं कि सुख, दुःख से महान है और कुछ दुःख को महान बताते हैं,पर मैं कहता हूँ,दोनों एक ही हैं। दोनों साथ आते हैं। जब कोई एक तुम्हारे साथ बैठा हो तो याद रखना दूसरा उस समय तुम्हारे बिस्तर पर सोया हुआ है।’ कभी सुख होता है और कभी दुःख होता है। आदमी सदा सुख चाहता है,कभी दुःख नहीं चाहता,पर दुःख होता है। आखिर सुख निरंतर क्यों नहीं होता ? क्या कारण है कि सुख चाहने वाले को दुःख मिलता है ? लगता है आदमी जीने के लिए सब कुछ करने लगा,पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया।
प्रश्न है कि सुख और दुःख प्रकृति क्या है ? हमारी मनोवृत्ति, हमारी जीवनशैली,हमारी सोच और हमारे व्यवहार-इसी से सुख और दुःख उत्पन्न होते हैं। प्रश्न होता है कि,सुख-दुःख का संवेदन क्यों होता है ? इसका समाधान यह है कि हमारी मानसिक धारणाओं ने एक विशेष अवस्था का निर्माण किया है। उसी से हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता,प्रियता और अप्रियता,हर्ष और विषाद का अनुभव होता है। आदमी भ्रम में जीता है। जो सुख शाश्वत नहीं है,उसके पीछे मृगमरीचिका की तरह भागता है। धन-दौलत,जर,जमीन,जायदाद, जोरू क्या शाश्वत रहे हैं ? फिर हम उन्हें शाश्वत की तरह क्यों मानते है ? क्या हमारी यह भ्रमभरी सोच नहीं है कि ये सब मरने के बाद भी हमारे साथ जाएंगे ? हर सुख और दुःख बन्द आँखों से देखा गया सपना होता है,इसलिए उसका संवदेन नहीं होता। जब अनुकूल बात होती है तब हमारा सुख का संवेदन जागृत हो जाता है और जब प्रतिकूल घटना घटित होती है तब दुःख का संवेदन जाग जाता है। प्रिय का योग होता है तो सुख का अनुभव होने लगता है और अप्रिय के योग में दुःख उभर आता है। सुख-दुःख हमारी सोच से उत्पन्न होने वाली मानसिक धारणाओं के साथ जुड़ा हुआ है।
अब प्रश्न है,क्या सुख को स्थायी बनाया जा सकता है ? क्या दुःख को समाप्त किया जा सकता है ? सीधा उत्तर होगा कि भौतिक जगत में ऐसा होना कभी संभव नहीं है। जब तक भौतिक जगत में जीएंगे तब तक यह स्वप्न लेना दिवास्वप्न है,कल्पना करना आकाश कुसुम जैसा है। आकाश में कभी फूल नहीं लगता। कमल का फूल लग सकता है,चंपक का फूल लग सकता है,पर आकाश में कभी फूल नहीं लगता। यह असंभव बात है कि इंद्रिय जगत में आदमी जीए और वह सुख या दुःख एक का ही अनुभव करे,यह द्वंद् बराबर चलता रहेगा। इसका समाधान है स्वयं का स्वयं से साक्षात्कार। इसके लिए जरूरी है हर क्षण को जागरूकता से जीना। उसको जीने के लिये भगवान महावीर ने कहा था-‘खणं जाणाहि पंडिए’l यानि जो क्षण को जानता है,वह सुख और दुःख के निमित्त को जानता है।
जिन्दगी की कुछ सच्चाइयां ऐसी है उन्हें जानने के लिए हमें भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर एवं लौकिकता से अलौकिकता की ओर प्रस्थान करना होगा। हमें साधना का मार्ग अपनाना होगा। कभी तो ऐसा होता है कि गुरु या पथ-दर्शक स्वयं दरवाजे पर आकर दस्तक देते हैं,उसका दरवाजा खटखटाते हैं और कहते हैं-चलो,यह रास्ता तुम्हारे लिए है। जब कोई ऐसी रोशनी मिलती है या कोई ऐसी रोशनी देने वाला होता है तो उस अवस्था में हम सुख और दुःख से परे की स्थिति में होते हैं। इसका समाधान महान दार्शनिक संत आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में इस प्रकार है कि,-`आनंद और सुख में कोई अंतर नहीं है। अगर अंतर डालें तो इतना ही अंतर किया जा सकता है कि सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख। यह सुख-दुःख के संवेदन का चक्र है। यह चक्र समाप्त होता है फिर कोरा सुख बचता है,वह आनंद बन जाता है। एक समृद्धि बन जाता है। आनंद का अर्थ होता है- समृद्धि। सारी गरीबी समाप्त हो जाती है, दरिद्रता समाप्त हो जाती है। समृद्धि वैभव,ऐश्वर्य-इसी का नाम है आनंद और उससे जो सुखानुभूति होती है, वह सुखानुभूति इस सुख-दुःख के चक्र में कभी नहीं होती।’
लोग उम्रभर सुख के भ्रम में जीते हैं। कोई यश के नाम पर,कोई खूबसूरत पत्नी के नाम पर,कोई सत्ता के नाम पर,कोई पद-प्रतिष्ठा के नाम पर तो कोई धन-दौलत के नाम पर सुख का भ्रम पाले हुए है ?आदमी अपना ‘स्व’ भूल रहा है। अच्छाइयों के बीच बुराइयां ढूं लाने की मानसिकता को अहमियत दे रहा है। ‘वह धर्म को जानता है पर जीता नहीं। अधर्म को जानता है पर छोड़ता नहीं। यही विडम्बनापूर्ण स्थिति ही सुख और दुःख के चक्र का कारण है।
सुख और दुःख जीवन का बड़ा सच है और इसकी रहस्यमयता ही आदमी को जीना सिखाती है। सुख और दुःख यदि न हो तो आदमी जीना ही भूल जाये। सुख और दुःख का उदय और अस्त दोनों ही अपने आप में सृष्टि का राज छिपाए हैं। अनुभव बताता है कि सफलता उन्हीं को मिलती है जिन्होंने टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चलते-चलते राजमार्ग का निर्माण किया है। जिन्होंने सीधा रास्ता खोजा है या दूसरों के बनाए हुए मार्ग पर चले हैं,वे कहीं कुछ नहीं कर पाए। साधक को अपने कर्तृत्व पर विश्वास,पुरुषार्थ पर विश्वास और कठोर जीवन जीने में विश्वास होना चाहिए। यह केवल साधना का ही मार्ग नहीं है,यह जीवन जीने की समग्र सफलता का मार्ग है और इसी में से होकर ही सुख और दुःख के रहस्य को समझा जा सकता है।

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