रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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याचक बनकर आए इन्द्र, अहिल्या के द्वार,
कैसे स्वागत करे देव का, अचम्भित थी अपार।
जान गई उनकी मंशा, न थी इतनी नादान,
इतनी तो पतिव्रता स्त्री में होती है पहचान।
पर फिर भी उसने उस देव को दिया प्रेम प्रतिकार,
लेकर मन में दया भाव का घट, कैसे करती इन्कार।
माँ सीता भी इसी तरह रावण के हाथों छली गई,
दयालुता व संस्कार की बेड़ी से नारी जो ढली गई।
अहिल्या भी बेबस होकर फँसी नियति के जाल,
देवत्व ने जब-जब चली थी अपनी कुत्सित चाल।
कोमल मन का होना भाव, क्या यही अपराध !
प्रकृति क्यों सहचर बनकर देती उसका साथ ?
सदियों से नारी जाति पर पुरूषों का आधिपत्य,
यही इतिहास है कहता, यही युग का अर्ध सत्य।
अपना दोष नहीं मानते, सभी ठहराते दोषी नारी,
विवशता उसकी न जाने, वह तो वक्त की मारी।
पाषाण बनी अहिल्या, पर उसका दुःखी हृदय,
कर गया जगति में एक नए भाव का उदय।
पुरूष प्रधान समाज, करो न विश्वास पुरूष पर,
काम-वासना इनकी है हर वासना से सर्वो-पर।
तुमने क्या अभिशाप दिया, मैं ही देती हूँ तुमको,
पाषाण बन तुम सदा पूजित रहोगे युग युग को।
आज भी इसलिए हर मंदिर में है पाषाण की मूरत,
नारी की वेदना रूप में प्रभु ने धारण की यह सूरत॥