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ईश्वरीय देन

हीरा सिंह चाहिल ‘बिल्ले’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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सब जानते हैं, धन-दौलत, रिश्ते-नाते, प्रेम-प्यार, धर्म-कर्म,जो कुछ भी कमाया, बनाया, सब कुछ यहीं छूट जाएगा। पता नहीं, किस पल में साँसें पूरी हो जाएं, और इस जग, जीवन को छोड़ कर प्राण-पखेरू-आत्मा, परमात्मा में विलीन हो जाएंगे, लेकिन फिर भी हर जीवन उस एक पल के बारे में सोचे बिना अपने मन की इच्छाओं-भावनाओं को उम्रभर के लिए संजोया करता है।
बहुत कम, शायद १-२ प्रतिशत सोच ही ऐसी बन पाती है कि, जीवन में ऐसा कुछ कर लें जिसे उम्र के बाद भी हमेशा याद किया जाए।
ऐसा होना बहुत कुछ जीवन की परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है, लेकिन वास्तव में वही मनुष्य अपने जीवन का सही निर्वहन करते हैं, जो परिस्थितियों को सोच के अनुसार ढालने में सफल होते हैं। इसी तात्पर्य से हाल ही के एक सुखद अहसास से आरम्भ करता हूँ-
इसी १ अप्रैल को मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच की मध्य भारत शाखा के मुख्य प्रशासक अंजनी तिवारी और डॉ. विनय कुमार पाठक (पूर्व अध्यक्ष-छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग) द्वारा मुझे अपनी काव्य रचनाओं (विशेष कर ‘माँ’ पर आधारित) के लिए सम्मानित किया गया। मैं बहुत प्रफुल्लित हुआ, मेरी अंतरात्मा में ये अहसास जागा कि-चलो माता-पिता के आशीष, साथियों की दुआओं और ईश्वर की असीम कृपा से इस काबिल तो हुआ कि, शायद अपनी उम्र के बाद भी कुछ लोगों के बीच यादें बनकर रह सकूं।
एक समय ऐसा भी था, जब अपने जीवन से पूरी तरह हताश हो चुका था। ४४ वर्ष की उम्र में २ अप्रैल (१९९९) को एक दुर्घटना ने मेरे मन में ज़ीने की इच्छा मार दी थी। मेरा दाहिना अंग पूरी तरह चोटग्रस्त (घुटने के नीचे से पैर कटा, कंधे और कोहनी के बीच स्टील प्लेट लगी) हो गया। तंत्रिका तंत्र असफल होने के कारण बिना सहारे के ५ मिनट तक खड़ा भी नहीं रह सकता। पिछले २४ वर्षों से बिना सहारे के एक कदम नहीं चल सका।
किस्मत से पता चला कि, कटक (उड़ीसा) में भारत सरकार का सबसे बड़ा कृत्रिम अंग रिसर्च सेंटर है, वहाॅं जाने से फिर से चलने लायक हो जाऊंगा। मैं गया। चलने लायक तो नहीं हो सका, पर वहाॅं जाकर मेरे मन में फिर जीने की इच्छा जागृत हुई। वहाॅं मैंने एक सूत्र वाक्य पढ़ा-“स्वर्ग का सुख पाने के लिए हर किसी को पहले नर्क का दुख भोगने के काबिल बनना पड़ता है।” बुजुर्ग कहते हैं कि-“ईश्वर जब किसी से कुछ लेते हैं तो उसका हजार गुना वापस भी करते हैं।”
आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि, बुजुर्गों की यह बात ईश्वर ने मेरे लिए उपरोक्त वाक्य द्वारा पूरी कर दी।
दुर्घटना के पहले, बल्कि कटक जाने के पहले मेरे मन में साहित्य के प्रति कोई रुचि नहीं थी। खेल-कूद, मौज-मस्ती यही मेरी दिनचर्या थी। उपरोक्त वाक्य ने न जाने मेरे अंतर्मन में कैसा असर किया कि, मैं सारा दिन घर में बैठे-बैठे सूत्र वाक्य, कविता, कथा, इत्यादि लिखने लगा।
एक दिन पत्नी की सहेली गीता मिश्रा आई थीं। वो मेरी किसी कविता से बहुत प्रभावित हुईं, और मुझे एक साहित्यिक मंच से जुड़वा दिया। शायद तभी से मेरे अंतस-मन का जागरण हुआ। लिखते-लिखते मैं विभिन्न मंच और पटल से जुड़ता गया। सम्मानित होने लगा और अब मन में ये अहसास है कि शायद जीवन के बाद भी, अपनी उम्र के बाद भी, कहीं न कहीं यादों में रहूंगा।
मेरी विकलांगता ने भी मेरे जीवन में बहुत गहरा असर किया है, जिससे मैंने दुर्घटना के बाद के ८-१० दस वर्ष हताशा से गुजारे हैं। अब महसूस करता हूँ कि, शायद भगवान ने मेरी किसी बात-करनी से खुश होकर मुझे ये ईनाम दिया है।

आज पूरा परिवार खुशहाल है। मेरा मानना है कि, हर किसी के जीवन के लिए ईश्वर का सबसे बड़ा ईनाम उसकी संतान का सुख है। जो मुझे प्राप्त है, और मैं संतुष्ट हूँ।

परिचय–हीरा सिंह चाहिल का उपनाम ‘बिल्ले’ है। जन्म तारीख-१५ फरवरी १९५५ तथा जन्म स्थान-कोतमा जिला- शहडोल (वर्तमान-अनूपपुर म.प्र.)है। वर्तमान एवं स्थाई पता तिफरा,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)है। हिन्दी,अँग्रेजी,पंजाबी और बंगाली भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री चाहिल की शिक्षा-हायर सेकंडरी और विद्युत में डिप्लोमा है। आपका कार्यक्षेत्र- छत्तीसगढ़ और म.प्र. है। सामाजिक गतिविधि में व्यावहारिक मेल-जोल को प्रमुखता देने वाले बिल्ले की लेखन विधा-गीत,ग़ज़ल और लेख होने के साथ ही अभ्यासरत हैं। लिखने का उद्देश्य-रुचि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-कवि नीरज हैं। प्रेरणापुंज-धर्मपत्नी श्रीमती शोभा चाहिल हैं। इनकी विशेषज्ञता-खेलकूद (फुटबॉल,वालीबाल,लान टेनिस)में है।

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