सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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सोने की चिड़िया को तो छोड़ दो, शर्म और संस्कार की चिड़िया को भी उड़ा दे रही है ये अश्लील सीरिज और आजकल की अश्लील फिल्में। सो जाओ… गधे-घोड़े बेच के सब लोग सो जाओ। जिसको जहां से देश में छेद करना है, करने दो।
ये क्या है सच्चाई के नाम पर एक-से-एक भद्दी गालियाँ, एक-से-एक भद्दे सीन…???? क्या सो रहे हैं सेंसर वाले! रिश्तों की कोई मर्यादा ही नहीं बची है। अपने परिवार के संग बैठ के महिलाएं कोई फिल्म तक चैन से नहीं देख सकती, ऐसे शर्मिंदगी वाले दृश्यों के कारण। क्या स्त्री शरीर होना शर्म की बात है…?? धिक्कार है… धिक्कार है… कुछ लोगों की ऐसी सोच पर। खुद में गुनहगार महसूस होता है। माँ, बाप, भाई, बहन, दादी, चाचा इत्यादि… ये सब रिश्ते आखिर बनाए क्यों गए हैं, यदि किसी के साथ भी कुछ भी करना है तो…?? क्यों लोग अलग-अलग कमरे बनाते हैं घर में, ताकि उचित काम उचित जगह पर हो। शादीशुदा जोड़े शयन कक्ष का उपयोग करते हैं केवल मर्यादा का ध्यान रखने के लिए। कुछ बातें परदे के पीछे ही शोभा देती है। नहीं तो अब एक ही कमरे का घर बना कर जिसको जो करना है, करने दो, क्योंकि सीरिज और फिल्म वाले तो यही सब परोस रहे हैं समाज में सच्चाई के नाम पर।
फिल्में देखना भला किसे पसंद नही है ? बहुत-सी सीरिज और फिल्में तो इतनी उच्च तकनीकी का इस्तेमाल कर के काफ़ी दर्शनीय बनाई गई है, कि सभी को उन्हें अवश्य देखना चाहिए और उनकी तकनीकी कला और विस्तृत ज्ञान का सम्मान भी करना चाहिए। ये मनोरंजन का बहुत मजबूत साधन है, किंतु फिर वही बात… अच्छी कहानियों को फालतू चीजों से इस हद तक नष्ट कर देते हैं कि अब वो संयुक्त परिवार का हिस्सा ही नहीं रह गई है, जबकि पहले मनोरंजन के तौर पर फिल्में देखना किसी भी सफल संयुक्त परिवार की रीढ़ की हड्डी हुआ करती थी।
क्या पहले फिल्में नहीं बनती थी?? तो आखिर अब कौन-सी ऐसी मजबूरी आन पड़ी जो गालियों और अंतरंग दृश्यों के बगैर फिल्में बन ही नहीं सकती…?? क्या एक भी आदमी है धरती पर… जो स्त्री-पुरुष संबंधों के बिना आसमान से टपक पड़ा है… जिसको ऐसे दृश्यों को देख के ग्लानि महसूस नहीं होती…????? कम से कम अपनी माँ, पत्नी, बहन, बेटी का तो सम्मान रख लें।
लोगों का ध्यान सिर्फ राजनीतिक उठापटक और देश के वर्तमान मुद्दों आदि में ही लगा हुआ है। किसी का ध्यान ही नहीं है इस दीमक पर, जो अंदर-ही-अंदर एक स्वस्थ समाज की नींव को हिलाने की तैयारी में जी-जान से लगा हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के देश में रहने वालों… इतनी अश्लीलता देख कर भी क्यों नहीं खुल रही तुम सबकी आँखें…?? क्यों कोई मुहिम नहीं शुरू करते इसके खिलाफ…?? क्या स्त्रियों की सुरक्षा… उसका सम्मान समाज देश के समर्थ और बलवान लोगों के हाथ में नहीं है…?? जब इस अदभुत अनमोल बहुमूल्य प्राणों से प्यारी संस्कृति का अंत हो जाएगा… क्या तब होश में आओगे…?? हम भारतवासियों को हमारी जिस पवित्र संस्कृति पर सबसे ज्यादा नाज़ है, उसी को नजरंदाज कर रहे हो…???? बच्चों के कोमल और नादान मन पर इसका क्या असर होता है, कभी सोचा है…?? हम अपनी क्षणिक खुशी के लिए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकते।
अब तो सबसे बड़ी विडंबना ये है कि शिक्षा के नाम पर नन्हें-मुन्नों तक के हाथ में मोबाइल थमा दिया गया है। क्या लगता है… वो सिर्फ विद्यालय के पाठ सीखेंगे…?? क्या आपको नहीं लगता कि अगली कक्षा में जाते-जाते वो कच्ची उम्र में ही मोबाइल के सहारे वयस्क शिक्षा भी अपने-आप ही सीखते चले जा रहे होंगे…?? वयस्क शिक्षा भी आवश्यक है, किंतु बच्चे उसे केवल मनोरंजन का साधन ना समझें। उसे उचित समय पर ही प्राप्त करें।
यदि शिक्षा का स्वरूप बदल रहा है तो मोबाइल पर उपलब्ध जानकारियों पर लगाम कसना जरूरी है। वह ज्ञान उपलब्ध हो जो एक विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हो, उन्हें सही राह दिखाए, ना कि अपराध की राह पर खींच ले जाए। क्या इस समस्या पर फौरन-से-पेश्तर निर्णय लेने की आवश्यकता नहीं है..?? रोटी, कपड़ा और मकान के साथ साथ क्या नैतिकता अभी की एक मूलभूत जरूरत नहीं है…??
ये देश की ऐसी ज्वलंत समस्या है, जिस पर तुरंत युद्ध-स्तर पर उपाय नहीं किया गया तो बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाओं को उंगलियों पर गिनना तक कठिन हो जाएगा। कृपया जागें… सोचें… पहले खुद ही बच्चों को बिगाड़ने की व्यवस्था कर के फिर उन्हें अपराध करने पर दंड देना उचित नहीं है। बाल अपराध का कारण कहीं-न-कहीं हमारा समाज और उसकी अनुचित व्यवस्थाएं हैं, जिन पर काबू किया जाना चाहिए।
फिल्में देखना कतई बुरी बात नहीं है, बल्कि ये तो समाज का आइना होती है। इसमें जितने सुंदर, भव्य और निर्मल दृश्य दिखाए जाएँगे, हमारा समाज उतना ही खूबसूरत दिखाई देगा, तो क्यों न इसे बहुत-बहुत खूबसूरत बनाएं…??
यदि जड़ से ही हम अपनी आने वाली पीढ़ी को टी.वी., फिल्मों और अन्य माध्यमों द्वारा अच्छे संस्कार देंगे, तो निश्चय ही उनमें नैतिकता के खूबसूरत फूल खिलेंगे।