सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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चित्त नहीं परिपक्व विविध विधि,
घेर लिया तृष्णा ने
सभी इंद्रियाँ विभ्रमित करतीं,
उलझा मन विषयों में।
तेजहीन मैं क्या उत्तर दूँ!
ज्ञान है मुझमें सीमित
ऊपर-नीचे दायें-बायें,
माया करती मोहित।
श्रांत आज मन मेरा कहता,
हित अपना खोजो तुम
श्रवण चक्षु और चंचल मन को,
विषयों से मोड़ो तुम।
अन्तर्मन की ज्योति जला कर,
मन से अपने बोलो
तिमिर आवरण सकल हटा कर,
लोचन अपने खोलो।
घटता-बढ़ता संयोजन,
अन्तर्मन में करो व्यवस्थित
सकल संयोजित हो जाए,
ऐसी नहीं है संभव स्थित।
संबंधों के सब घट रीते,
अब न कहीं अपनापन।
क्यों जाऊँ मैं और कहीं,
जब अंतस में वृंदावन॥