कुल पृष्ठ दर्शन : 15

You are currently viewing धर्म-स्थलों में खत्म हो दर्शन में भेदभाव

धर्म-स्थलों में खत्म हो दर्शन में भेदभाव

ललित गर्ग

दिल्ली
***********************************

मन्दिरों, धर्मस्थलों एवं धार्मिक आयोजनों में बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति (वीआईपी) संस्कृति एवं उससे जुड़े हादसों एवं त्रासद स्थितियों ने न केवल देश के आम आदमी के मन को आहत किया है, बल्कि भारत के समानता के सिद्धान्त की भी धज्जियाँ उड़ा दी है। मौनी अमावस्या के महाकुंभ में भगदड़ के चलते ३९ लोगों की मौत ने ऐसे मौकों पर कुछ महत्वपूर्ण लोगों को मिलने वाले विशेष सम्मान एवं सुविधा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। बात केवल महाकुंभ की नहीं है, बल्कि अनेक प्रतिष्ठित मन्दिरों में इस महत्वपूर्ण संस्कृति के चलते होने वाले हादसों एवं आम लोगों की मौत ने अनेक सवाल खड़े किए हैं। प्रश्न है, कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले ही कार्यकाल के दौरान इस संस्कृति को खत्म करते हुए लालबत्ती एवं ऐसी अनेक विशिष्ट सुविधाओं को समाप्त कर दिया था, तो मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों की विशिष्ट संस्कृति को क्यों नहीं समाप्त किया गया ? क्यों महाकुंभ में विशिष्ट स्नान के लिए सरकार ने अलग से व्यवस्थाएं की। क्यों एक विधायक अपने पद का वैभव प्रदर्शित करते हुए महाकुंभ में कारों के बड़े काफिले के साथ घूमते एवं स्नान करते हुए पुलिस-सुविधा का बेजा इस्तेमाल करते हुए एवं स्व चित्र लेते हुए करोड़ लोगों की भीड़ का मजाक बनाते रहे ? सवाल यह पूछा जा रहा है, कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों और आयोजनों में क्यों भक्तों के बीच भेदभाव होता है ? विशेष दर्शन की अवधारणा भक्ति एवं आस्था के खिलाफ है। यह एक असमानता का उदाहरण है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी आघात है।

महाकुंभ हो या मन्दिर, धार्मिक आयोजन हो या कीर्तन-प्रवचन भगदड़ के कारण जो दर्दनाक हादसे होते रहे हैं, जो असंख्य लोगों की मौत के साक्षी बने हैं, उसने इस विशेष सुविधा पर एक बार फिर से बहस छेड़ दी है। उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में विशेष दर्शन नहीं, मस्जिद में विशिष्ट नमाज नहीं, चर्च में विशिष्ट प्रार्थना नहीं होती है, तो सिर्फ हिन्दू मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिए विशेष दर्शन सुविधा क्यों जरूरी है ?
योगी सरकार ने हादसे से सबक लेते हुए भले ही विशिष्ट व्यवस्था पर रोक लगाई हो, लेकिन बावजूद महाकुंभ में यह संस्कृति बाद में भी पूरी तरह हावी रही है। महाकुंभ हो या प्रसिद्ध मन्दिर, यह व्यवस्था समाप्त होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी धार्मिक स्थलों पर होने वाली विशिष्ट व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए हैं, जबकि उन्हें ऐसे हादसे की उम्मीद भी नहीं रही होगी। निश्चित ही जब किसी को वरीयता और प्राथमिकता दी जाती है तो यह समानता की अवधारणा को कमतर आँकना है। ‘बहुत खास व्यक्ति’ संस्कृति एक पथभ्रष्टता है। यह अतिक्रमण है, मानवाधिकारों का हनन है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए एवं धार्मिक स्थलों में तो बिल्कुल भी नहीं।
देश की कानून व्यवस्था एवं न्यायालय भी देश में बढ़ती इस संस्कृति को लेकर चिन्तित है। मद्रास उच्च न्यायालय की मुदुरै पीठ ने एक सुनवाई के दौरान कहा भी है कि लोग अति विशिष्ट व्यक्ति संस्कृति से ‘हताश’ हो गए हैं, खासतौर पर मंदिरों में। अदालत ने तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में विशेष दर्शन के संबंध में कई दिशा-निर्देश जारी किए। राजस्थान में गहलोत सरकार ने भी मन्दिरों में ऐसे दर्शनों की परम्परा को समाप्त करने की घोषणा की थी, कि मन्दिरों में बुजुर्ग ही एकमात्र अति खास होंगे। इस तरह की सरकारी घोषणाएं भी समस्या का कारगर उपाय न होकर कोरा दिखावा होती रही है। अक्सर नेताओं एवं धनाढ्यों को विशेष दर्शन कराने के लिए मंदिर परिसरों को आम लोगों के लिए बंद कर दिया जाता है, जिससे श्रद्धालुओं को भारी परेशानी होती है, लोग इससे दुखी होते हैं और कोसते हैं। बहुत खास लोगों को तरह-तरह की सुविधाएं दी जाती है, पुलिस-व्यवस्था रहती है, जबकि आम श्रद्धालुओं को कई किलोमीटर तक पैदल चलना होता है, भगवान के दर्शन दूर से कराये जाते हैं एवं उनके साथ धक्का-मुक्की की जाती है।
तीर्थस्थलों और गंगा स्नान में इस संस्कृति की बात कि जाए तो आम श्रद्धालुओं को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, लेकिन खास के लिए अलग घाट बना दिए जाते हैं। सवाल ये है, कि जहां करोड़ों लोग जुट रहे हों, वहाँ आम श्रद्धालुओं की असुविधा को बढ़ाकर विशिष्ट स्नान जैसी व्यवस्था क्यों ?

नरेन्द्र मोदी के शासन-काल में हिन्दू मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों के लिए जनता का आकर्षण बढ़ा है, करोड़ों की संख्या में आम लोग इन स्थानों तक पहुंच रहे हैं, लेकिन ईश्वर के दर्शन भी उनके लिए दोयम दर्जा लिए हुए है। एक आम आदमी जो घंटों कतार में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है, तो उसे बाहर से ही दर्शन के लिए बाध्य किया जाता है, जैसे वह अछूत हो। दूसरी ओर सामने ही कुछ बहुत ख़ास लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं। लगता है मन्दिरों में दर्शन एवं धार्मिक आयोजनों में सहभागिता को लेकर आम आदमी गुलामी की मानसिकता को ही जी रहा है। इन स्थानों पर उसके स्वाभिमान, सम्मान एवं समानता को बेरहमी से कुचला जा रहा है। ये कैसा मंदिर और ये कैसा दर्शन जहाँ सरेआम आम दर्शनार्थी का अपमान हो रहा है। इसलिए, जिस भी मंदिर में विशिष्ट दर्शन की सुविधा दी जा रही है, उसके खिलाफ जनक्रांति हो। आज हिन्दू मन्दिरों की भेदभाव पूर्ण दर्शन-व्यवस्था को समाप्त करके ही आम आदमी को उसका उचित सम्मान किया जा सकता है, उसकी निराशा एवं पीड़ा को समझा जा सकता है। उन्नत राष्ट्र-चरित्र निर्मित को निर्मित करते हुए सबसे बड़ी जरूरत है कि आम आदमी का हक नहीं छीना जाए। अन्यथा आम आदमी के अंदर पनप रहा यह असंतोष किसी बड़ी क्रांति का कारण न बन जाए ?केन्द्र सरकार मन्दिरों एवं धार्मिक-स्थलों से इस संस्कृति को समाप्त करने के लिए कोई ठोस कदम उठाए।