दिल्ली
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कलकत्ता दुष्कर्म-हत्या…
कोलकाता के एक चिकित्सा महाविद्यालय में प्रशिक्षु चिकित्सक के दुराचार, बलात्कार व बर्बर हत्या पर स्वाभाविक ही देशभर के आमजन में तीखी प्रतिक्रिया एवं चिकित्सकों में तीव्र रोष, गम और गुस्सा है, उसे समझा जा सकता है। जीवन-रक्षा करने वाले अस्पतालों एवं जीवन-रक्षक चिकित्सकों पर हो रहे हमले एवं वीभत्स घटनाएं चिन्तनीय हैं। यह सरकारों एवं पुलिस की असफलता, लापरवाही एवं कोताही को ही दर्शा रही है। ऐसी घटनाओं में पुलिस की भूमिका अनेक सवाल खड़े कर रही है। इस घटना ने एक बार फिर इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि अस्पतालों में चिकित्सकों को किस तरह के खतरों के बीच काम करना पड़ता है। महिला ही नहीं, पुरुष चिकित्सक भी तरह-तरह के हमलों की आशंकाओं व असुरक्षा के बीच जीते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि घटना के बाद भी पुलिस संतोषनक कार्रवाई नहीं कर सकी। चिकित्सकों की बुनियादी मांग यह है कि घटना की निष्पक्ष और विश्वसनीय जांच सुनिश्चित की जाए।
इस त्रासद एवं खौफनाक घटना के विरोध में देशभर में गुस्साए और फिक्रमंद चिकित्सकों के बेमियादी हड़ताल पर होने से अस्पतालों में चिकित्सा सेवाएं चरमरा गयी हैं। अब चूंकि इस मामले का संज्ञान लेते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जांच सीबीआई को सौंप दी है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि संतोषजनक जांच होगी और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।
बड़ा सवाल यह भी है कि क्या अस्पतालों में सिर्फ चिकित्सक ही खतरे में होते हैं ? नर्स, अन्य स्वास्थ्यकर्मी एवं रोगी भी कहाँ सुरक्षित है ? २०२४ में अस्पतालों में हुए यौन हमलों के हर ५ में से ४ में पीड़ित महिला मरीज रही हैं। सवाल यह भी है कि अस्पतालों में अधिकतम भार के रूप में मरीजों पर होने वाले वित्तीय हमलों को क्यों चर्चा से बाहर रखना चाहिए ? आखिर अस्पतालों में बनते असुरक्षा के माहौल का यह भी एक अहम पहलू है। हमारे अस्पताल हर तरह से सुरक्षित होने चाहिए और इसके लिए सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए।
चिकित्सकों बढ़ते पर हमलों के कारण उनका डर और चिंता जायज है, लेकिन जहां तक केंद्रीय कानून की मांग है तो सवाल यह है कि क्या कोलकाता में हुआ हमला कड़े कानूनों की कमी का परिणाम है ? सच यह है कि ज्यादातर राज्यों में ‘हिंसा या क्षति या संपत्ति के नुकसान की रोकथाम’ अधिनियम पहले से ही लागू है। अब तो हर अस्पताल में चिकित्सकों पर हमलों के लिए चेतावनी के बोर्ड देखने को मिलते हैं, मगर इन राज्यों में भी इसके तहत दर्ज मामलों में १० फीसदी ही आरोप तय होने के बाद अदालत तक पहुंच पाते हैं। जाहिर है, मूल समस्या कानून में नहीं, उस पर अमल में है। अदालत ने उचित ही आंदोलित चिकित्सकों को उनके पवित्र एवं पावन दायित्व का एहसास कराया है और उनसे अपने काम पर लौटने की अपील की है। आखिर किसी जालिम की करतूत की सजा बेकसूर मरीजों को क्यों मिलनी चाहिए ? इसलिए न्याय मांगते चिकित्सकों को भी सोचना चाहिए कि किसी मरीज से नाइंसाफी न हो।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक अध्ययन के अनुसार ७५ प्रतिशत से अधिक चिकित्सकों को काम पर हिंसा का सामना करना पड़ता है।
भारत भर में चिकित्सकों के खिलाफ हिंसा की असंख्य घटनाएं लगभग हर दिन सामने आती हैं, जिनमें से कुछ में गंभीर चोटें भी आती हैं। यहां तक कि देश के प्रमुख चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं।
पश्चिम बंगाल में बात केवल राजनीतिक हिंसा एवं आक्रामकता की ही नहीं है, बल्कि कुशासन एवं अराजकता की भी है। वहां आम जनता के साथ अस्पतालों की सुरक्षा भी खतरे में है। इसका एक उदाहरण चुनाव से पहले कोलकाता के एनआरएस चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल में सामने आया था, वह भी एक काला अध्याय ही था। इलाज के दौरान एक बुजुर्ग मरीज की मृत्यु के बाद वर्ग विशेष के लोगों ने चिकित्सकों पर हमला बोल दिया था, जिससे कई चिकित्सक गंभीर रूप से घायल हो गए थे। भारत में चिकित्सकों को लगभग भगवान का दर्जा मिला हुआ है। ऐसे में, उन पर हमला निरंकुशता और असंवेदनशीलता की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, जो तंत्र से पोषित एवं संरक्षित होता है। उसकी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर इसे किसी शून्य की उपज भी नहीं कह सकते, लेकिन ताजा घटना में प्रशिक्षु चिकित्सक के साथ जो हुआ, उसने तो सारी सीमाएं लांघ दी है।
इस हत्याकांड ने फिर पश्चिम बंगाल सरकार एवं पुलिस-प्रशासन को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। खुद अदालत ने सवाल किया कि आखिर शुरुआत से ही हत्या के बजाय अस्वाभाविक मौत के नजरिए से जांच क्यों की गई ? इतने संवेदनशील मामले में अतिरिक्त सक्रियता बरतकर पुलिस न सिर्फ पीड़ित परिवार के भरोसे का संरक्षण कर सकती थी, बल्कि चिकित्सकों को भी यह यकीन दिला सकती थी कि अपराधी चाहे कोई भी हो चंद घंटों के भीतर वे सलाखों के पीछे होंगे!, मगर बंगाल पुलिस ने कहीं न कहीं कोताही बरती। दरअसल, यह सिर्फ एक राज्य की पुलिस की बात नहीं है। लोगों की निगाहों में राज्य-दर-राज्य पुलिस की छवि इतनी कमजोर हो चली है कि जघन्य अपराधों की जांच में भी लोग उसकी पेशेवर काबिलियत पर आसानी से भरोसा नहीं करते और उसमें राजनीतिक कोण देखने लगते हैं। निस्संदेह, इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व भी बराबर के दोषी है। सीबीआई की कार्यशैली भी सवालों से घिरी है ऐसे में, आरजी कर चिकित्सा महाविद्यालय और चिकित्सक के हत्याकांड की जांच उसके लिए एक नई चुनौती है कि वह जल्दी से जल्दी इसकी जांच मुकम्मल कर न सिर्फ दोषी या दोषियों को सलाखों के पीछे पहुंचाएं, बल्कि अपनी छवि भी सुधारे।