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बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद…!

रोहित मिश्र
प्रयागराज(उत्तरप्रदेश)
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बात लगभग २०१० की है,जब मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में परास्नातक करने के लिए प्रवेश लिया। उस समय मैं बकायदा ढीली शर्ट और सामान्य पेंट पहनता था। ढीली-ढाली शर्ट पैंट पहनकर बकायदा गले में सफेद अंगौछा डालकर महाविद्यालय जाया करता था। मैंने शहर के ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंधित महावीर प्रसाद महाविद्यालय से स्नातक किया था,जहाँ सिर्फ लड़के ही पढ़ते थे। इस कारण मैने कभी अपने पहनावे पर ध्यान नही दिया।
एम. ए. में जाने के बाद मालूम हुआ कि कक्षा में लड़कियां भी हैं। मेरी कक्षा में कुछ लड़के अच्छे पहनावे-व्यक्तित्व के थे,जिनसे लड़कियाँ काफी प्रभावित होती थी। यह देखकर मुझे भी अच्छे व्यक्तित्व का चस्का लगा। शुरुआत सुबह-सुबह उठकर दौड़ने से की। धीरे-धीरे व्यायाम भी करना शुरु किया।
मेरे घर से १०० मीटर की दूरी पर नागबासुकी मंदिर है,जहाँ काफी शांति है। मैं वहाँ भी जाता था। उस समय योग का प्रचलन कम था। मंदिर में ही कुछ लोग अलग-अलग स्थान से आकर इकठ्ठा होकर एकसाथ योग किया करते थे।
उस समय आज की तरह इंटरनेट प्रचलन में नहीं था। मुझे मालूम हुआ था कि योग से मन को शांति मिलती है और सौंदर्य में निखार आता है,तो मैंने भी योग को जीवन का हिस्सा बनाने का फैसला किया। तब योगगुरु की किताब,सी.डी. ढूँढने का प्रयास किया,पर सफल नहीं हो पाया। तब मंदिर में योग करने वालों को देखकर अलग से मंदिर के पीछे योग करने लगा। योग की सही जानकारी जरूरी थी,अथवा योग का उल्टा असर होता। योग उनके साथ इसलिए नहीं करता था,क्योंकि दौड़ने का क्रम छूट जाता।
उसी मंदिर में मजदूर वर्ग भी रहते थे। जब मैं मंदिर के पीछे योग के अलग-अलग व्यायाम करता था,तो मजदूर मुझे गौर से देखते रहते थे। जब मैं ॐ का उच्चारण करता था,तो मजदूर हँसा भी करते थे,पर मुझ पर इसका असर नहीं पड़ता था,क्योंकि सवाल व्यक्तित्व का था।
एक दिन योग करने के बाद मंदिर परिसर में टहल कर मंदिर परिसर में लगी कुर्सी पर बैठा ही था कि २ लोग मेरे पास आए। उनमें से एक ने कहा कि,- ‘रोहित,तुम ॐ ॐ ॐ…. क्या करते रहते हो ?’
मै जान गया कि वो मुझसे मजा ले रहे हैं। मैंने प्रतिउत्तर में कहा…-‘बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद।’ इतना सुनते ही दोनों चुपचाप वहाँ से चलते बने।

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