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बादल भी थे… लालच…

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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बादल भी थे,
हवा भी थी
मौसम सुहाना था,
फिर भी खुश ना थे।

बारिश भी थी,
झरना भी था
नदी भी थी,
दरिया भी था,
फिर भी हम प्यासे रह गए।

पेड़-पौधे थे,
बगिया भी थी,
फूल भी खिले थे,
लेकिन हम दुखी रह गए।

अन्न भी था,
वस्र भी थे
सिर पर छत भी थी,
लेकिन हम बेघर कहलाए
फिर भी हम भूखे रह गए।

ज़रूरत की चीज़ें भी थी,
जीवन जी ने के साधन भी थे
फिर भी हम संतुष्ट ना थे,
क्योंकि,
मन हमारा लालची था
बहुत कुछ होने बाद भी,
और पाने की लालसा थी।

लालची मन ने हमें,
अपना ग़ुलाम बना दिया
ईमान से बेईमान हो गए।
और इंसानियत खोकर
हैवान हो गए….॥