हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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हमने जाड़े की सर्दी है झेली,
हर गर्मी का मौसम है झेला
वसन्त ऋतु की बहारें हैं देखी,
देखा वर्षा ऋतु का क्रुद्ध खेला।
स्मृति के विलासित गहवार में,
हैं उभरती-धंसती कई यादें
हसरतें जो कुछ थी पूरी हुई,
रह गए अधूरे ही थे कई वादे।
इस जिन्दगी के अधूरे सफर में,
खूब है देखा यह जग का मेला
किसी के धन का अम्बर है देखा,
किसी के नसीब में न देखा धेला।
अजूबों से भरी इस दुनिया में,
मैंने सपने सबके अधूरे देखे
राजा-रंक सब परेशान हैं देखे,
किसी के ख़्वाब नहीं पूरे देखे।
किसी को अहम से इठलाते देखा,
तो किसी को शर्म से शर्मिंदा देखा
अमीर-गरीब सबको मरते है देखा,
किसी को सदा न यहां जिन्दा देखा।
पर होड़ा-होड़ी और आपाधापी में,
निरन्तर छटपटाते हैं सबको देखा
लक्ष्मण रेखा को लांघते जो संघर्ष में,
उनको समाज द्वारा नकारते है देखा।
अजीब करिश्मा है इस जीवन का,
इस भीड़-भड़ाक में यह अकेला है
इस जीवन ने अपने पूरे सफर में,
हर वफा व छल प्रपंच को झेला है।
यह जीवन इस जग के लगभग,
हर सम्भव सुख दु:ख से खेला है
हसरतें तो थी आकाश में उड़ने की,
पर जीवन की हद ने इसे नकेला है।
अनुभव में जो आया है अब तक मेरे,
कि यह जीवन तो निरन्तर अकेला है।
आया इस दुनिया में यह अकेला ही था,
जाता भी इस दुनिया से यह अकेला है॥