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रिश्ते रूपी पौधे में निरंतर छिड़कें प्यार और अपनापन

पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा (ओडिशा)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…?…

बड़ी अजीब-सी बात है। बात यदि रिश्तों की उठे तो, मन बड़ा मायूस हो जाता है। एक गहरी सोच में डूब जाता है मन! और एकाएक आँखों के सामने रिश्तों के तमाम चेहरे तैरने लगते हैं। मन रम जाता है उन रिश्तों की गुंथी माला में, जिसे कभी अपनेपन और प्यार की डोर से बांधा गया था। और ना जाने ऐसा क्या हुआ कि रिश्तों की माला कमजोर हो गई और रिश्तों की डोर एक दिन टूट गई। रिश्ते शब्द आते ही बस यही अफसोस जेहन में हौले-हौले अवसाद के सागर में डुबकियाँ लगाने लगता है, क्योंकि ‘रिश्ता’ शब्द वास्तव में रिश्ता ही है, जो कभी आनंद और खुशियाँ देता है, वही रिश्ता कभी-कभी दु:ख और पीड़ा के सागर में डुबो देता है। रिश्ते शब्द आते ही मन किसी एकांत में खो जाता है, शून्य की स्थिति को प्राप्त कर किसी डोर में समा जाता है। मानो जैसे विस्तृत आकाश में बादलों की ओट में कोई अदृश्य हो गया हो और गमगीन होकर आँसू बहा रहा हो। रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं, रिश्तों को संभाल की आवश्यकता है। जहां रिश्ते अपनेपन और प्यार की सीमेंट से मजबूत दीवार की तरह बन जाते हैं, वहीं रिश्ते कभी-कभी आपस में टकराने के कारण दीवारों में दरारों की तरह दिखाई देने लगते हैं और अंत में आपस में जुड़ाव कम होने के कारण टूट कर बिखर जाते हैं।
रिश्तों की दीवार तब तक टिकी रहती है, जब तक स्वार्थ जन्म नहीं लेता है। जैसे ही स्वार्थ अपना डेरा डालता है, वैसे ही रिश्तों की दीवारें धीरे-धीरे कमजोर होने लगती हैं। जैसे-जैसे स्वार्थ हावी होता जाता है, दीवारें कमजोर होकर दरारों के रूप में उभर कर सामने आ जाती हैं। जब स्वार्थ की जमीन पर अहंकार का बवंडर उठता है, तब रिश्तों की चट्टान-सी दीवारें तहस-नहस हो जाती है। गत कुछ वर्षों से रिश्तों की गरिमा मानो कहीं खो-सी गई है। अब पहले जैसे रिश्ते निभाने वाले और रिश्तों की गरिमा को बनाकर चलने वाले लोग शायद नहीं रहे। पहले इंसान नए-नए रिश्तों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ कर्तव्य समझकर निभाया करते थे। रिश्ते की डोर को वो प्यार और अपनेपन से बांध कर रखते थे, पर आज ऐसा कुछ भी नहीं रहा। आज रिश्ते तो बनते हैं, पर महज कुछ मिनटों के लिए। और वह भी निजी स्वार्थ को ध्यान में रखकर बनते हैं, निभाए जाते हैं और वक्त रहते तोड़ दिया जाता है या अपने-आप टूट जाते हैं, पर क्या हमने टूटते रिश्ते के पीछे के कारण को कभी समझने की कोशिश की है ? क्या हमने कभी विचार किया कि रिश्ते इतने कमजोर क्यों हो जा रहे हैं ? क्या कभी आपस में बातचीत की है कि रिश्तों में गाँठ क्यों पड़ रही है ?
वास्तव में देखा जाए तो रिश्तों को निभाना बहुत ज्यादा कोई कठिन काम या बात नहीं है। गाँठ तभी आती है, जब हम रिश्तों को संभाल कर रखने में असमर्थ हो जाते हैं या परवाह नहीं कर पाते हैं।
रिश्तों में गाँठ ना पड़े, रिश्ते ना टूटे, दरारे ना आए, इसके लिए हम कुछ रास्ते निकाल सकते हैं, या यूँ कहिए कि रिश्तों को संभालने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं, ताकि रिश्ते पवित्र हो, पक्के हो, मजबूत हो। न टूटे-न बिखरे, न गाँठ पड़े, न दरार आए।
कुछ महत्वपूर्ण पक्ष जो रिश्तों को जोड़ कर रख सकते हैं-रिश्तों की डोर को मजबूती से पकड़ें, पर टूटने ना दें तो, गाँठ नहीं पड़ेगी। रिश्तों के बीच स्वार्थ, अहंकार और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार या लापरवाही को हावी ना होने दें। रिश्ते पनपें तो उन्हें पल्लवित, पुष्पित होने दें, पर मुरझाने ना दें।
रिश्तों रूपी पौधे की जड़ों में निरंतर प्यार और अपनेपन का जल छिड़काव जरूर करें तथा स्नेह का आवरण भी सजा कर रखें।
रिश्ते रूपी आँगन में व्यवहार का शीतल मधु छिड़कें, ताकि तनाव का बादल घनघोर रूप से कभी ना बरस पड़े। रिश्तों की थाली पर निरंतर स्नेह, प्रेम, शांति, सेवा, त्याग, विनम्रता, सहयोग जैसे शानदार पकवान को परोसते रहें, ताकि रिश्ते का स्वाद बड़ा ही आनंदमय हो जाए।
रिश्तों को संभालने में यदि स्वयं को कष्ट हो जाए तो कष्ट सह लें, पर टूटने या कमजोर ना होने दें। रिश्तों का संयोग ईश्वर का आशीर्वाद मानें और अपनी आँखों में बसा लें, पर आँखों से गिरने ना दें।
इस तरह हम रिश्तों की गरिमा को बनाए रख सकते हैं और निभाते हुए डोर को गाँठ पड़ने या टूटने से बचा सकते हैं।
रिश्तों के बनाए रहने से जहां एक ओर जीवन खुशहाली व आनंद से भर जाता है, वहीं टूट जाने से इंसान दुखी और पीड़ा से भर जाता है, जिसके कारण उसे एकाकीपन का जीवन बिताना पड़ता है।
रिश्ते-सेवा, त्याग, सहयोग और निर्वाह जैसे ४ श्रेष्ठ गुणों के स्तंभ से मजबूती से बनते हैं। चारों में से किसी एक की भी कमी हो जाए तो, कमजोर हो जाते हैं। इसी लिए हमें चाहिए कि डोर को मजबूती से पकड़ें, उसकी संभाल जरूर करें, साथ ही इन स्तंभों को मजबूती से बनाए रखें, ताकि रिश्तों की डोर वास्तव में ईश्वर के आशीर्वाद की डोर के रूप में जीवन भर हमें बांधकर रखें और उस बंधन में बनकर हम स्वयं को धन्य समझें।