ऋचा गिरि
दिल्ली
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हवाएँ आज सुस्त हैं,
प्रभा भी आज लुप्त है
दिशा धूमिल-धूमिल-सी है,
निशा शिथिल-शिथिल सी है।
अनल नजर न आ रहा,
भयप्रद अंधेरा छा रहा।
ऐ सूर्य तुम कहाँ हो!
तुम्हें पुकारती हूँ मैं
तिमिर से अभाव में,
प्रकाश चाहती हूँ मैं।
लताएँ भी उदास हैं,
नीड़ नहीं पास है
खग बेजान लग रहे,
न पंख है न पग रहे।
राह में घिराव है,
संकीर्ण-सा अभाव है।
आकाश तुम जो दिख रहे,
तुम्हें पुकारती हूँ मैं
संकीर्ण इस हालात में,
विस्तीर्ण चाहती हूँ मैं।
न झील न झरने बह रहे,
हैं मौन कुछ न कह रहे
प्राणहीन नीर लग रहा,
उन्माद से न जग रहा।
दिशांत नहीं दिशाओं में,
घन नहीं घटाओं में।
ऐ सागर बोल हो कहाँ!
तुम्हें पुकारती हूँ मैं
वेग के अभाव में,
प्रवाह चाहती हूँ मैं।
खलिहान-बाग सूखे हैं,
धरा के वंशज रूखे हैं
इंद्रधनुष में रंग नहीं,
सरिता में सारंग नहीं।
धारा हुई निष्पंद है,
जर्रा-जर्रा अब मंद है।
ऐ मेघ तुम हो कहाँ!
तुम्हें पुकारती हूँ मैं।
सारंग के अभाव में,
तरंग चाहती हूँ मैं।
समस्त सृष्टि के लिए,
उपहार चाहती हूँ मैं।
श्रृंगार चाहती हूँ मैं,
सत्कार चाहती हूँ मैं।
प्राणी मात्र के लिए,
औदार्य चाहती हूँ मैं
गोचर-अगोचर के लिए,
सौंदर्य चाहती हूँ मैं।
पूरी प्रकृति के लिए,
वरदान मांगती हूँ।
यह दान मांगती हूँ मैं,
वरदान मांगती हूँ मैं॥