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संवेदनाओं की महक और प्रहार भी है ‘धूप आँगन की’

विजयसिंह चौहान
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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‘धूप आँगन की’ सात खण्ड में विभक्त एक ऐसा गुलदस्ता है,जिसमें साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न विधाओं के फूलों की गंध को एकसाथ महसूस करके आनन्द लिया जा सकता है। भारत की ख्यात लेखिका श्रीमति शशि पुरवार ने इस गुलदस्ते को आकार दिया है,जो हिन्दी साहित्य जगत में सशक्त हस्ताक्षर हैं। इन्दौर में जन्मी शशि पुरवार ने यहीं से विज्ञान में उपाधि प्राप्त करके मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण किया,जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है। विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा सम्मान से नवाजी गई शशि पुरवार गीत,आलेख, व्यंग्य,ग़ज़ल,कविता,कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही हैं।


‘धूप आंगन की’ मुझे अपनी-सी व सुहानी-सी लगती है। कभी कोयल की कूक,तो कभी पायल की रूनझुन मन को गुदगुदाने लगती है। संवेदनाएं भी जीवन की झर धूप में,नेह छाँव की तलाश करती नजर आती है। ग़ज़ल खण्ड में लगभग २४ ग़ज़लें-धूप आँगन के इर्द-र्गिद मंडराती है,कभी इश्क का जखीरा पिघलता है,तो कभी आँगन में लगा नीम ढेरों उपहार देने के बाद भी मुरझाता-सा प्रतीत होता है।
मधुवन में महकते हुए फूल हों या ग़ज़ल के करिश्मे,हर रचना में
रचनाकार की कोमल संवेदनाओं का उठता ज्वार,समुद्र से गहरे विचार को दर्शाता है। बनावटी रिश्तों की कसक हर आँगन में होती है,लेकिन इस ‘आँगन की धूप’ ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नीयत पाक नहीं होती‘ है व वक्त
लुटेरा बनकर सबको लूटता है। ‘ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में,­जिंदगी फिर गुलाब हो जाए’ जैसी ग़ज़लों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है।
रचनाकार के मन में हिन्दी के प्रति जन्में अगाध श्रद्वा भाव ने हिन्दी को विभिन्न उपमा,अलंकार में श्रृंगारित करते हुए बेहद सुन्दर उदगार प्रेषित किये हैं। यह प्रेम उनकी रचना में नजर आता है। ग़ज़ल के यह शेर देखें-
‘सात सुरों का है ये संगम,
मीठा-सा मधुपान है,हिन्दी।
फिर वक्त की नजाकत,दिल की यादें,और साँसों में बसी हो क्या,यहां आते-आते धूप आंगन की;’ जाड़े में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाओं की कोमल धूप थोड़ी देर और आँगन में बैठने के लिए मजबूर करती है। इस साहित्यिक यात्रा में जैसे-जैसे धूप तेज होती है,वैसे-वैसे गर्मी की उष्णता भी महसूस होने लगती है। ऐसी ही एक ग़ज़ल है जिसका शेर है-
‘घर का बिखरा नजारा और है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया।’
शेर पढ़कर धूप की चुभन का अहसास होता है। ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ ग़ज़ल में प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि,हौंसलों के गीत गुनगुनाओ।
एक बात और कि ग़ज़ल खण्ड को पढ़ते-पढ़ते आँखें कहीं नम होती है,तो कहीं हृदय को मानसिक सुकून मिलता है। संवेदनाएँ हमारे ही परिवेश का रेखांकन करती हुई अपने ही इर्द-गिर्द होने का अहसास कराती हैं।
संवेदनाओं की वाहिका धूप आँगन से होते हुए ‘लघुकथा‘ खण्ड में प्रवेश करती है,जहां सामाजिक ताना-बाना,रौशनी की किरण बनकर हर एक लघुकथा के माध्यम से दिव्य संदेश की वाहिका बनकर पाठकों तक पहुंचती है। लघुकथा खण्ड में समाज में हुए मानसिक पतन,जीवन का सच,गरीब कौन,दोहरा व्यक्तित्व तथा विकृत मानसिकता,स्वाहा और ममता आदि लघुकथाएँ समाज को सार्थक संदेश देती है। जीवन की तपिश में जाड़े की नर्म धूप-सा अहसास होता है। संग्रह के लघुकथा खण्ड में जब नया रास्ता, आईना दिखाता है तो अर्न्तमन का सुकून संवेदना के रूप में बाहर झलकता है। समाज में व्याप्त अंधविश्वास,खोखले रिवाजों के बीच सलोनी के चेहरे पर आई मुस्कान पढ़कर अर्न्तमन तृप्त हो जाता है। बड़ी कहानी खण्ड में ‘नया आकाश’ आम गृहिणी की मनोदशा का मार्मिक चित्रण है। यह कहानी हर किसी को अपनी ही संवेदनाओं का अहसास कराती है। कहानी के अंत में नारी सम्मान पर जीवनसाथी द्वारा दिये गये संदेश अपनी दिव्यता की महक छोड़ते हैं कि “नारी का काम सृजन करना ही है,मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है। हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है,जिसे बाहर लाना चाहिये।” अपनी पत्नी पर गर्वीली आँखों में आई चमक का बख़ूबी वर्णन किया गया है।
विभिन्न विधाओं में किया गया लेखन, जब व्यंग्यता की ओर बढ़ता है तो लगता है कि व्यंग्य का चुटीलापन रचनाकार के लेखन की हर विधा में नजर आता है। फिर चाहे वह लघुकथा हो,कविता हो या व्यंग्य;हर पल संवेदना के गहरे बादल मंडराते हैं।
‘बोझ वाली गली में टोकरे ही टोकरे‘ में साहित्य जगत का टोकरा व प्रकाशक व सम्पादक के टोकरे में अलादीन का चिराग तथा स्वयं अपने काम के टोकरे से परेशानी को बेहद चुटीले अंदाज में पेश किया गया है। अड़ोस-पड़ोस का दर्द व विचारों में मिलावट,हिंदी की कुडंली में साढ़े साती के चलते हिंगलिश में थोड़ी-सी विंग्लिश का नवप्रयोग जहाँ समाज को आईना दिखाता है,वहीं समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्त करता है।
ग़ज़ल,लघुकथा,बड़ी कहानी व व्यंग्य में गुनगुनाने के बाद साहित्य यात्रा आलेख के माध्यम से शिक्षित बन अधिकार जानें महिलाएँ,बाल शोषण, समाज का विकृत दर्पण,आत्महत्याओं पर विचारोत्तेजक आलेख लेखक की विद्वता व संवेदनशीलता को परिलक्षित करते हैं।
जीवन उस रेत के समान है जिसे मुठ्ठी में जितना बाँधना चाहें,वह उतना ही फिसलती जाती है। सकारात्मक जीवन जीने तथा बेहतर जीवन बनाने के लिये कर्मशील होना आवश्यक है, खाली दिमाग शैतान का घर होता है,अपना शौक पूरा करें,ये कुछ ऐसी नसीहतें हैं जो सीधे सरल और सहज रूप से इन लेखों के माध्यम से कही गई है। सकारात्मक सोच को प्रवाहित करते शशि पुरवार के लेख आज के दौर में ज्यादा प्रासांगिक नजर आते हैं। साहित्यिक यात्रा के अगले चरण में डायरी के पन्नों से बाल काल की समेटी हुई कवितायें हैं। इन कविताओं को
पढ़कर महसूस होता है कि, बालमन में ही संवेदनाएं जन्म लेकर नव आकाश का निर्माण करेंगीं। देश के ख्यात कवियों की शैली की झलक इन रचनाओं में नजर आई है। सर्वप्रथम लिखी कविता ‘कहाँ हूँ मैं’ ने ही लेखिका के मन में जन्मे भाव ने कवि ह्रदय की गहन संवेदनाओं के पंख पसारने शुरू कर दिये थे।
इन पन्नों में नारी के अस्तित्व पर जहाँ सवाल उठे हैं,वहीं छलनी हो रहे आत्मा के तार,चीत्कारता हदय करे पुकार है। झकझोरते हुए जज्बात हैं तो कहीं खारे पानी की सूखती नदी है। कभी शब्दों की छनकती गूँज है तो कभी सन्नाटे में पसरी आवाजे चहुंओर बिखरी नजर आती है। इसी खण्ड में तलाश को तलाशते हुए रेखांकन बरबस ही नजरों में ठहर जाते हैं।
काव्य की बात हो और चाँद से संवाद न हो,यह मुमकिन नहीं है। चाँद से अकेले में संवाद करती हुई शशि पुरवार की बालपन की रचना में सौंदर्य व प्रेम की पराकाष्ठा नजर आती है। प्रेम व संवेदना की कोमल वाहिका चाँद के साथ-साथ बेटियों पर भी अपना ममत्व न्यौछावर करती है। अनगिनत उपमा,अलंकार और
श्रृंगार से श्रृंगारित काव्य खण्ड में मन रसमय होकर तल्लीन हो जाता है।
इस खण्ड में भूख,चपाती,अकेला आदमी,सपने,जीवन की तस्वीर पढ़कर जहाँ मानसिक क्षुधा शांत होती है,वहीं हिय में अनगिनत प्रश्न मन को विचलित भी करते हैं। संग्रह में लेखिका ने रचनाओं के माध्यम से सामाजिक मुद्दों व कोमल संवेदनाओं पर खुला प्रहार किया है। सभी मुद्दों को बेहद नजाकत के साथ प्रस्तुत किया है। कहते हैं ना कि कड़वी गोली खिला दी और कड़वाहट का अहसास भी नहीं हुआ। कुल मिलाकर १६८ पृष्ठों में समाई ‘धूप आँगन की’ एक ऎसी साहित्य यात्रा है,जो विरामित नहीं होती है,अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोड़कर बहती रहती है। एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम है। किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप हैं,जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती हैं। शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है। दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से ‘धूप आँगन की’ साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली है। बेहद सुन्दर संग्रह हेतु बधाई,कलम यूँ ही अनवरत चलकर समाज को लाभान्वित करे।

परिचय : विजयसिंह चौहान की जन्मतिथि ५ दिसम्बर १९७० और जन्मस्थान इन्दौर(मध्यप्रदेश) हैl वर्तमान में इन्दौर में ही बसे हुए हैंl इसी शहर से आपने वाणिज्य में स्नातकोत्तर के साथ विधि और पत्रकारिता विषय की पढ़ाई की,तथा वकालात में कार्यक्षेत्र इन्दौर ही हैl श्री चौहान सामाजिक क्षेत्र में गतिविधियों में सक्रिय हैं,तो स्वतंत्र लेखन,सामाजिक जागरूकता,तथा संस्थाओं-वकालात के माध्यम से सेवा भी करते हैंl लेखन में आपकी विधा-काव्य,व्यंग्य,लघुकथा और लेख हैl आपकी उपलब्धि यही है कि,उच्च न्यायालय(इन्दौर) में अभिभाषक के रूप में सतत कार्य तथा स्वतंत्र पत्रकारिता जारी हैl

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