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स्याह भरी मंजिल

 डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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जिंदगी की खातिर (मजदूर दिवस विशेष)…..

कम करके ना इनको आंको,
ना है इनकी, छोटी-छोटी बातें
आन पर, अगर ये आ जाते हैं,
तो ये, अपना लोहा मनवाते
जिन्दगी की खातिर ये,
क्या-क्या नहीं झेल जाते।

उषा की पहली किरण आती,
भरने नई-नई उर में उमंगें
ठान लेते हैं, अपने मन में,
चलो आज, नया कुछ करने।

राईं को ये, पर्वत कर दे,
पर्वत का चीर दे सीना
मेहनत ही है इनकी दौलत,
जहां बहता तन से पसीना।

खुद ये बेघर, होते हैं और,
घर औरों का ये बनाते हैं
इनकी मंजिल,स्याह भरी
औरों को मंजिल पहुंचाते हैं।

पर इनके हालात देखकर,
लगे, कलेजा मुँह को आए
शाम को खाना, मिल जाए,
फिर सुबह की फिक्र सताए
जिन्दगी की खातिर,जिन्दगी
ने क्या-क्या रंग दिखाए।

हम रहते,आलिशान भवन में,
उनका नील-गगन तले डेरा
सो रहे उम्मीद लिए वो,
कभी फिरेगा, दिन भी मेरा।

कब आ जाए, सियासत वाला,
अपनी जादू की छड़ी घुमाने,
दो वक़्त की देकर रोटी,
हमें जन्नत की सैर कराने।

इनकी बदौलत, देख पाते हैं,
हम अपनी पुरानी धरोहरें
इनसे ही, तो खड़ी है यहां,
ऊँची-ऊँची मन्दिर और मीनारें।

देख जिन्हें हम गर्व से,
भरते, फूले नहीं समाते
पर जिसके हकदार हैं वो,
हम उन्हें नहीं दे पाते
जिन्दगी की खातिर ये,
क्या-क्या हैं सह जाते।

अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं ये,
इनका हम-सब सम्मान करें।
ना देखें, इन्हें तुच्छ नजर से,
ना हम, इनका अपमान करें॥

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