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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-९

विधि को सुखद लगी यह जोडी,
उसने आँखें चार करायीं
यह कैसा संयोग अजब था,
नजरें भी तलवार बनायीं।

लगीं काटने वे सपनों को,
देखा करती थी जो प्रति पल
हमला करतीं आदर्शों पर,
जिनसे रहता था मन उज्जवल।

कभी कनखियों से वह देखे,
कभी देखती उसे प्रभाती
ओंठों पर मुस्कान सहेजे,
आँखों-आँखों में सकुचातीl

क्रमश:बढ़ती गई निकटता,
क्रमश:बेटी लगी बदलने
जाने कौन शक्ति अनजानी,
कोमल तन में लगी मचलने।

सपनों की बदली परिभाषा,
बदल गये मन के पैमाने
सीधी राह बताने वाले,
उलटा उसको लगे चलाने।

एक-दूसरे के प्रति क्षण-क्षण,
बढ़ता ही जाता आकर्षण
मन हो दुविधा में पर उनकी,
आँखों ने कर दिया समर्पण।

जहाँ देखते दिखते वे ही,
एक-दूसरे में यों खोये
जैसे स्वयं प्रकृति ने जग में,
केवल बीज प्यार के बोये।

लगता उन्हें हुआ जादू-सा,
एक विचित्र हुआ परिवर्तन
लक्ष्य हेय हो गया और अब,
प्रेम बना जीवन का बन्धन।

अभी हुआ था परिचय केवल,
अभी प्रथम सोपान चढ़े थे
नहीं प्यार का द्वंद शुरू था,
अभी मात्र उदगार बढ़े थे।

दिखता सिर्फ प्यार ही जग में,
दिखता सारा जग प्रीतम में
दिवस बीतते स्मृतियों में,
रातें कटतीं डूब स्वयं में।

नहीं मृत्यु पर दुनिया रोती,
बिना प्यार के सृष्टि न होती
प्यार जगाता दुनिया जगती,
प्यार सुलाता दुनिया सोती।

चाँद-सितारे भरे प्यार से,
भरी प्यार से अखिल धरा है
वन,उपवन,गिरि,गह्वर,कानन,
सागर में भी प्यार भरा है।

जहाँ देखती दिखता केवल,
उसे प्यार का ही आयोजन
पशु,पक्षी,तरु,विटप सभी का,
एक प्यार ही दिखे प्रयोजन।

कैसी अजब प्यार की महिमा,
प्यार दिलाये जग को गरिमा
जो भी ढले यहाँ मिट्टी में,
ढले प्यार से ही हर प्रतिमा।

फिर क्यों प्यार न करे प्रभाती,
वह भी इसी सृष्टि की थाती
बहुत झुकाती दृष्टि धरा पर,
अंशुमान पर वह उठ जातीll

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। 
समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता,गीत,गजल,कहानी,लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन,अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक 
पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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