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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-१०

आइ.ए.एस. बनने का सपना,
अपने से हो चला हताहत
जहाँ प्यार की बजी दुंदुभी,
सिमट गई उसकी हर चाहत।

फिर भी था संकल्प हृदय में,
काम नया कर दिखलाने का
जो न सहज कर पाती बेटी,
ऐसा ही कुछ कर जाने का।

तुरत पुस्तकों में लग जाती,
बरबस ध्यान हटाती प्रिय से
अन्तर्द्वन्द उठा यह कैसा,
अपने मन का अपने हिय से।

दोनों ही संकल्प सुदृढ़ थे,
पढ़-लिख कर बन जाये अफसर
बने अंशु ही जीवन साथी,
यह विचार भी आता अक्सर।

अंशुमान से उदित हुई है,
स्वयं प्रभाती इस धरती पर
उसके साथ दिवस होता है,
उसके पीछे लगा क्षपाकर।

प्रभु ने स्वयं बनाया रुचि से,
अंशु-प्रभा का सुन्दर जोड़ा
कितने ही बादल घिर आये,
पर दोनों ने साथ न छोड़ा।

यही सोचती कैसे उसके,
ये दोनों उद्देश्य पूर्ण हों
अफसर बन कर ब्याह रचाये,
सपने कोई नहीं चूर्ण हों।

किन्तु अकेले ले वह कैसे,
जीवन का यह अहं फैसला
मात-पिता का मन हो आहत,
यह न प्रभाती रखे हौंसला।

माता रहती थी क्या हरदम,
इसी एक चिन्ता से बोझिल
भटक न जाये बेटी उसकी,
मिले न उसको कोई मंजिल।

इसीलिये क्या लगा रही थी,
वह मुझ पर प्रतिबंध अनूठे
तब इनका औचित्य न था कुछ,
लगते थे सब मुझको झूठे।

किन्तु आज लगता है ऐसा,
माँ का अनुभव था न निरर्थक
देख उदास मुझे करती थी,
एक बात का ही मुझ पर शक।

रखती सदा सुझाव ब्याह का,
सुन कर पिता रूठ से जाते
कैसे विदा करें बेटी को,
मन में सोच टूट से जाते।

कौन जानता विधि के छल को,
जिसने माँ का हृदय बनाया
कहीं कठोर सुदृढ़ निर्णायक,
और कहीं अति सदय बनाया।

दूध पिला कर जिसे पालती,
कहती उसे पराया धन वह
हाथों पर दिन-रात झुलाती,
किन्तु समझती बोझ सघन वह।

क्या विचित्र है माँ का मानस,
गहराई का माप नहीं है
माँ-बेटी के रुधिर कणों-सा,
मिलता कहीं मिलाप नहीं है।

देश-विदेश कहीं हो बेटी,
अजब एक यह रिश्ता पलता
बेटी के दो अश्रु टपकते,
माँ का ममता सिंधु छलकता।

बेटी गिरती कभी धरा पर,
चोट मात के तन पर लगती
रक्षा का हो प्रश्न कहीं जो,
बेटी सोती-माता जगती।

माँ की ममता माँ ही जाने,
है उपमान नहीं ममता का
बेटी के हित में क्या कर ले,
कोई माप न उस क्षमता का।

फिर भी अति कठोर हो माँ ही,
प्रिय बेटी का ब्याह रचाती
जिसके बिना न पल-क्षण कटते,
उसे पराया स्वयं बनाती।

यह भी है ममता का पहलू,
बेटी रहे सुरक्षित हरदम
मिले एक ऐसा वर उसको,
हो सब सुख देने में सक्षम।

बेटी हँसे,हँसे वह भी सँग,
रोये बेटी तो रोये वह
एक अंगरक्षक-सा हरदम,
बेटी सोये,तब सोये वह।

पिता स्वयं कहते बेटी को,
चंद दिनों की अतिथि बेचारी
बेटी का घर कहीं और है,
कितनी ही हो हमें दुलारी।

पलती कहीं-कहीं जा बसती,
अजब प्रथा है यह धरती की
कठिन दोराहे पर जीवन के,
सजा काटती वह जगती की।

एक दिवस आयेगा ऐसा,
जाना ही होगा घर अपनेl
कर ही देंगे मुझे पराया,
तोड़ स्वजन देंगे सब सपनेll

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। 
समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता,गीत,गजल,कहानी,लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन,अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक 
पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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