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आरक्षण याने राजनीति का दीवाला

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें यह मांग की गई थी कि केंद्र सरकार उसे पिछड़ी जातियों के आँकड़े उपलब्ध कराए ताकि वह अपने स्थानीय चुनावों में महाराष्ट्र के पिछड़ों को २७ प्रतिशत आरक्षण दे सके। केंद्र सरकार ने २०११ में जो व्यापक जन-गणना करवाई थी, उसमें नागरिकों की समााजिक-आर्थिक स्थिति पर भी आँकड़े इकट्ठे किए गए थे। न्यायाधीशों ने उस याचिका को रद्द कर दिया और कहा कि खुद केंद्र सरकार ने उन आँकड़ों को इसीलिए प्रकाशित नहीं किया, क्योंकि ‘‘वे प्रामाणिक और विश्वसनीय नहीं’’ थे। १० साल पहले की गई जातिय जनगणना से पता चला कि भारत में कुल ४६ लाख अलग-अलग जातियां हैं। उनमें कौन अगड़ी है और कौन पिछड़ी, यह तय करना आसान नहीं है, क्योंकि एक प्रांत में जिन्हें अगड़ी, दूसरे प्रांत में उन्हें ही पिछड़ी माना जाता है। एक ही गौत्र कई अगड़ी और पिछड़ी जातियों में एकसाथ पाया जाता है। कई तथाकथित अगड़ी जाति के लोग बेहद गरीब होते हैं और पिछड़ी के कई लोग काफी अमीर होते हैं। जब अंग्रेजों ने भारत में जन जातिय जनगणना शुरु की थी तो उनका इरादा भारत की एकता को जातिय क्यारियों में बांटने का था,ताकि १८५७ के स्वातंत्र्य-संग्राम में उभरी राष्ट्रीय चेतना भंग हो जाए,लेकिन अंग्रेज शासकों की इस प्रवृत्ति के विरोध में गांधी जी के नेतृत्व में जनगणना का इतना तीव्र विरोध हुआ कि १९३१ से इसे बंद कर दिया गया,पर हमारे ज्यादातर नीतिविहीन राजनीतिक दलों ने अपनी जीत का आधार जाति को बना लिया। इसीलिए उनके जोर देने पर कांग्रेस सरकार ने जातिय जनगणना फिर से शुरु कर दी,लेकिन इस जनगणना का विरोध करने के लिए जब ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन शुरु किया तो लगभग सभी दलों ने उसका समर्थन किया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर वह जातिय जनगणना बीच में ही रुकवा दी गई। उसके आँकड़े न तो कांग्रेस सरकार ने प्रकट किए,न ही भाजपा सरकार ने। यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान सरकारी वकील ने जातिय जनगणना को अवैज्ञानिक और अशुद्ध बताया है। उसने यह भी कहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने किसी व्यवस्थित जानकारी के बिना ही २७ प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों को दे दिया, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रोक लगाई है, वह ठीक है। इस वक्त बिहार, उत्तरप्रदेश और दक्षिण के भी कुछ नेता जातिय गणना की मांग पर डटे हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल वैचारिक और व्यावहारिक दृष्टि से लगभग दीवालिया हो चुके हैं। इसीलिए वे जाति और मजहब के नाम पर थोक मत कबाड़ने के लिए मजबूर हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की अपंगता का सूचक है। देश के गरीब और कमजोर लोगों को जातिय आधार पर नौकरियों में नहीं,बल्कि शिक्षा और चिकित्सा में जरुरत के आधार पर आरक्षण अवश्य दिया जाना चाहिए।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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