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‘महाविजय’ को तो ‘राजनीतिक कृपणता’ से परे रखें…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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अफसोस कि भारतीय सेना और तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की एक पारंपरिक युद्ध में निर्णायक जीत और दक्षिण एशिया में एक नए देश को जन्म देने की महान घटना की स्वर्ण जयंती भी राजनीतिक कृपणता का शिकार हो गई। यह विजय जिस महान जनरल और युद्ध रणनीतिकार एच.एफ. मानेकशा और राॅ चीफ परमेश्वरी नाथ काव की रणनीति तथा रक्षा,विदेश और गृह मंत्रालय के आदर्श तालमेल का परिणाम थी,उन्हें शायद ही किसी ने याद किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी,जिनके साहस और दूरदर्शिता की इस जीत में अहम भूमिका रही,जिन्हें उस वक्त अटलजी ने ‘दुर्गा’ कहा,उन्हें न सिर्फ दरकिनार किया गया,बल्कि यह सवाल भी उठाया गया कि जो हमने युद्ध में जीता,उसे टेबल पर गंवा दिया (ऐसे में काहे का श्रेय)। सेना के विजय दिवस समारोह पर सीडीएस जनरल बिपिन सिंह रावत के दुर्घटना में असमय निधन से शोक की छाया रही। लिहाजा यह जश्न भी औपचारिक रहा। कुछ अखबारों और टी.वी. चैनलों ने जरूर ५० साल पहले हासिल उस महान विजय का पुनर्स्मरण किया,लेकिन नई पीढ़ी और खासकर २१ वीं सदी में जन्मी पीढ़ी तक इस विजय का गौरव,सबक और संदेश जिस तरह पहुंचाया जाना चाहिए था,शायद ही पहुंचा हो।
यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है,क्योंकि आज जब छोटी-छोटी उपलब्‍धियों को भी महान बताने का चलन है,तब २० वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत द्वारा पड़ोसी देश में चतुराई भरा और मानवता के पक्ष में सैनिक हस्तक्षेप कर ‘बांगला देश’ जैसे नए राष्ट्र को जन्म देना वैश्विक दृष्टि से भी अभूतपूर्व और भारत के संदर्भ में ‘न भूतो न भविष्यति घटना’ है। आज दुनिया में कुल १९५ छोटे-बड़े देश अस्तित्व में हैं। इनमें से ११० तो २० वीं सदी में ही वजूद में आए हैं। इन नए देशों का जन्म सशस्त्र क्रांतियों,राजशाहियों और तानाशाहियों के खिलाफ जन आंदोलनों,उपनिवेश से मुक्ति,बड़े देशों के विखंडन या कई देशों के विभाजन के फलस्वरूप हुआ है। इनमें से भी १०६ देशों का जन्म तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ,जिनमें भारत और पाक भी शामिल हैं। ये देश धर्म के आधार पर विभक्त हुए या किए गए थे। लिहाजा,१९७१ का ‘बांगला देश युद्ध’ न सिर्फ अत्याचारों के खिलाफ भारतीय सेना की जीत थी,बल्कि धर्माधारित राष्ट्र निर्माण के जिन्ना के सिद्धांत को ध्वस्त करने वाली निर्णायक विजय भी थी। यह अकेले भारतीय सेना के पराक्रम और युद्ध नीति की विजय नहीं थी,यह समूचे भारतवासियों की मानवता के हक में लड़ी गई लड़ाई की भी जीत थी। यह केवल श्रीमती गांधी (बाद में वो खुद तानाशाही बर्ताव करने लगीं,वो अलग बात)या सत्तारूढ़ कांग्रेस की जीत नहीं थी,बल्कि सुनियोजित रणनीति,धैर्य,दृढ़ता,आत्मश्लाघा से दूर सुविचारित योजना और उस पर सटीक अमल की विजय भी थी। यूँ युद्ध में किसी की हार और किसी की जीत होती ही है,लेकिन भारतीय सेना की ‘बांगला देश विजय’ विश्व की उन चुनिंदा युद्ध विजयों में से है,जिसमें भारतीय सेना की अजेयता के आगे पाक सेना के जनरलों सहित ९३ हजार सैनिकों ने समर्पण किया। यह बहुत असाधारण, दुर्लभ और रोमांचित करने वाली बात है,क्योंकि सेनाएं इस तरह आसानी से हथियार नहीं डालतीं। ऐसा करना एक सैनिक के आदर्श के भी खिलाफ है,पर भारतीय सेना ने तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान (अब बांगला देश) में स्थानीय बंगाली लड़ाकों, बीएसएफ के साथ मिलकर ‘मुक्ति वाहिनी’ का गठन किया। इस वाहिनी ने बांगला देश में भारतीय सेना की निर्णायक जीत का मार्ग प्रशस्त किया। १९७१ की लड़ाई में भारतीय सेना के ३ हजार से अधिक सैनिक और अफसर शहीद हुए,तो ९ हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक मारे गए।
इस युद्ध के वो १३ दिन मुझे आज भी रोमांचित करते हैं। तब पिताजी की पदस्थापना शिवपुरी जिले के कस्बे पोहरी में थी। मैं नौंवी कक्षा का छात्र था। पूर्व पाकिस्तान में पाक सेना की अत्याचारों की खबरें आ रही थीं। तब सूचना के २ ही माध्यम थे। अखबार,वो भी कस्बे में काफी देरी से पहुंचता था और दूसरा आकाशवाणी के समाचार। ज्यादा तथा विश्वसनीय खबरों के लिए पिता जी के साथ बीबीसी हिंदी बुलेटिन सुना करते थे। जो घट रहा था,उससे किशोर मन में बेचैनी थी। ३ दिसंबर की रात जब घोषित रूप में युद्ध छिड़ गया तो खबरों की भूख और बढ़ गई। युद्ध के समय मोर्चे पर भले सेना लड़ती हो,लेकिन उस वक्त हर नागरिक का मन भी ‍सैनिक हो जाता है। देशप्रेम रग-रग में उबलने लगता है। भारतीय सेना की आगे कूच करती खबरें मन को रोमांचित करती थीं। लगता था,काश! खुद ही सेना में होते,लेकिन उम्र कम थी। तभी विचार कौंधा कि क्यों न अखबारों पत्रिकाओं में छपी बांगला देश युद्ध की तस्वीरों का एक एलबम बनाया जाए। यह एलबम आज भी सुरक्षित है। ५० साल बाद मैंने जब इसे पलटा तो एक भारतीय नागरिक के नाते मैं उसी गर्व से भर गया,जो एक आम नागरिक का गर्वभाव हो सकता है। बांगला देश विजय के बाद आकाशवाणी से एक देशभक्ति गीत ‘सत्यमेव जयते…’ रोज सुबह साल भर तक बजता रहा था। इस गीत को ग्वालियर के कवि उद्धव कुमार ने लिखा था और गाया था स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने,तो संगीत जयदेव का था।
दुर्भाग्य से यह सच है कि कई बार युगांतरकारी घटनाएं और उपलब्‍धियां भी कालांतर में केवल राजनीतिक चश्मे से देखी जाने लगती हैं। इसका ताजा उदाहरण पिछली सदी में सोवियत क्रांति की सौंवी बरसी पर आधुनिक रशिया में रहा उदासीन प्रतिसाद। यह सही है कि साम्यवादी विचारधारा अब हाशिए पर है,लेकिन ऐतिहासिक तथ्य है कि साम्यवाद ने विश्व में गरीब और मेहनतकशों की गरिमा को स्थापित किया। साम्यवाद अपने आप में बदलाव की हवा और एक राजनीतिक‍ विकल्प लेकर आया था,लेकिन वक्त के साथ नहीं बदल पाया,इसलिए आज हाशिए पर है। ऐसा किसी भी राजनीतिक विचार या आंदोलन के साथ हो सकता है,यह नहीं भूलना चाहिए।
बांगला देश युद्ध ने भारतीय सेना की जीत की अमिट गौरव गाथा तो लिखी ही,एशिया में भारत के सैनिक शक्ति होने के तथ्य को भी स्थापित कर दिया। खासकर तब कि जब देश की आर्थिक स्थिति आज के मुकाबले बहुत कमजोर थी। दुनिया २ ध्रुवों में बंटी थी,जिनमें से किसी का एक का सहारा लेना विवशता थी।
बांगला देश युद्ध विजय की पूर्व पीठिका तैयार करने में एक पत्रकार का भी महत्वपूर्ण हाथ रहा है। नेविल एंथोनी मस्करेहंस गोवानी मूल के पाकिस्तानी पत्रकार थे। जब जनरल ‍नियाजी के नेतृत्व में तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान में सेना और धर्मांध रजाकारों द्वारा बंगालियों की सामूहिक हत्याएं,बलात्कार किए जा रहे थे और उससे ‍त्रस्त लाखों बंगाली शरणार्थी भारत आ रहे थे,तब हकीकत छुपाने के लिए पाक सेना ने विदेशी पत्रकारों का एक प्रायोजित दौरा पूर्व पाकिस्तान का कराया था। एंथोनी की खुली आँखों ने जो कुछ देखा,उससे वो सिहर गए। कहते हैं कि दल के ७ पत्रकारों ने तो वही लिखा,जो पाक सेना चाहती थी,लेकिन एंथोनी ने वो हकीकत लिखी,जिसे जानकर पूरी दुनिया हिल गई। यह रिपोर्ट यूके में १३ जून १९७१ के ‘संडे टाईम्स’ के अंक में ‘नरसंहार’ शीर्षक से छपी थी। इसमें बताया गया कि,देश में करीब ३० लाख बंगालियों को मार डाला गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि इस रिपोर्ट ने उन्हें बुरी तरह विचलित कर दिया और उन्होंने निर्णायक कार्यवाही का मन बना लिया।
बांगला देश युद्ध में विजय और बांगला देश के रूप में अव्यावहारिक पूर्व पाकिस्तान का शेष पाक से हमेशा के लिए अलग होना इस बात का परिचायक है कि हमें सभी संस्कृतियों,भाषा और दूसरों के आत्म सम्मान का भी सम्मान करना चाहिए। धर्म की बुनियाद पर अलग हुए और खुद २ हिस्सों में बंटे पाकिस्तान से अलग ‘बांगला देश’ की नींव तो १९४८ में जिन्ना की उस घोषणा से ही रख दी गई थी,जिसमें उन्होंने उर्दू (जो पाक में किसी की भी मातृभाषा नहीं थी) को देश की अधिकृत भाषा बनाने का ऐलान किया था।
एक देश के दो टुकड़े कर नए देश को जन्म देना कोई साधारण बात नहीं है। नि:स्संदेह, यह काम देश में इंदिरा गांधी के पहले और बाद में भी कोई नहीं कर पाया। आगे भी कर पाएगा,अभी नहीं कहा जा सकता। इंदिरा गांधी की वह कामयाबी समूचे भारत की कामयाबी है। अगर आप ऐतिहासिक तथ्यों को खारिज करेंगे तो आने वाला समय आप को भी खारिज कर सकता है। बांगला देश युद्ध का ‘विजय दिवस’ समग्र भारतीय मानस की शुभाकांक्षा,एकजुटता और संकल्प शक्ति का विजय दिवस है। ऐसी राष्ट्रीय उपलब्धि पर भी किसी किस्म की अघोषित राजनीतिक कृपणता भी हमें अपनी ही ‍निगाहों में बौना करती है।

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