डॉ. विकास दवे
इंदौर(मध्य प्रदेश )
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मंगलवार रात्रि का प्रसंग है। एक कार्यक्रम से वापसी हो रही थी। देर रात जब वापस लौट रहा था, तो मेरे ध्यान में आया कि, भोपाल के कार्यक्रमों में लौटते हुए अल्पाहार का पैकेट देने की एक परम्परा बनी हुई है। इन दिनों स्वास्थ्यगत परेशानियों के कारण ना तो कुछ तला हुआ खा पाता हूँ, और ना ही मीठा। सामान्यत: मैं इस तरह के पैकेट को इसी कारण लाता भी नहीं, पर आज लौटते हुए एक वयोवृद्ध साहित्यकार द्वारा अत्यंत स्नेह से जबरदस्ती पकड़ाया हुआ पैकेट साथ आ गया था। मुझे पता था कि, उसकी सामग्री को मैं खा नहीं पाऊँगा और कचरे में फेंक कर अन्न देवता का अपमान करना भी मन को स्वीकार नहीं हो रहा था। अचानक मैंने देखा कि, देर रात कांग्रेस कार्यालय (भोपाल) के पीछे के सुनसान चौराहे पर एक ऑटो स्टॉप पर जहाँ सामान्यत: अनेक रिक्शा खड़े रहते हैं, वहाँ अकेला रिक्शा खड़ा हुआ है और रिक्शा चालक भैया अपना ध्वनि यंत्र धीमी आवाज में चलाते हुए राम जी का भजन सुन रहे थे। मैंने अपना दो पहिया वाहन उनके पास रोका तो उनको लगा मैं रिक्शा लेने के लिए आया हूँ। तुरंत बोले-“कहाँ चलना है बाउजी ?”
मैंने कहा-“जाना कहीं नहीं है। एक कार्यक्रम से लौटते हुए मेरे पास कुछ खाने की सामग्री का यह पैकेट है। मैं यह भी जानता हूँ कि, इन दिनों संपूर्ण समाज में अविश्वास का वातावरण पसरा हुआ है। ‘किसी अनजान व्यक्ति से कोई भी वस्तु लेकर ना खाएं’ ऐसी सूचनाएँ ट्रेन और बसों में तथा सभी सार्वजनिक स्थानों पर लगी हुई होती है, किंतु मुझे ऐसा लग रहा है कि यह भोजन सामग्री कचरे में जाए, इससे अच्छा है कि बगैर बुरा माने कोई इसको सम्मान देते हुए खा ले।”
रिक्शा चालक भैया ने मेरे हाथ से पैकेट लेते हुए मेरे सामने ही उसे खोला और तुरंत कचोरी को मुँह में डालते हुए बोले-“बाउजी, ये तो रामजी का प्रसाद है। बुरा माने वो बेवकूफ।”
खाते-खाते वो अपनी धुन में बोले जा रहे थे और मुझे लग रहा था किसी प्रवचन मंडप में बैठकर मैं व्यास पीठ से रामकथा सुन कर पुण्य कमा रहा हूँ।
वो बोले-“बाउजी आपको बताऊँगा तो आप आश्चर्य कर जाएंगे। अभी-अभी मैं अपनी दिनभर की अमेजॉन के सामान वितरित करने की ड्यूटी खत्म करके लौटा हूँ। रात में रिक्शा किराए पर लेकर ४-५ घंटे चलाता हूँ। आज समय अधिक हो गया था, इसलिए बीच में घर नहीं जा पाया और सेठ के यहाँ से रिक्शा लेकर सीधे चौराहे पर आ गया। सच कहूँ तो कई बार पूरा-पूरा दिन और रात मेहनत करने के बाद भी घर पर बच्चों की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त धन नहीं मिल पाता है। आज भी यही सोच रहा था कि, यदि घर के आसपास की कोई सवारी छोड़ने को मिली तो इस बीच मैं घर जाकर खाना खा लूंगा, लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो शायद आज भूखे पेट कम से कम रात्रि २ बजे तक रिक्शा चलाने के बाद जब घर जाता, तभी मुझे खाना नसीब होता।
राम जी का भजन चालू करते हुए मेरे मन में केवल इतना भाव आया था कि, अपनी चिंता मैं खुद क्यों करूँ ? दुनिया में राम जी ने भेजा है, तो राम जी ही मेरी चिंता करेंगे। रही बात विश्वास और अविश्वास की, तो मैं भले ही अनपढ़ हूँ, लेकिन मनुष्य को पहचानता हूँ। मुझे आपसे लेकर यह खाने में कोई भी संकोच नहीं। आप आराम से जाइए।”
इतनी सारी बातें सहज आत्मीयता से मुझे बताते हुए इस मध्य उन्होंने न केवल कचोरी समाप्त की, बल्कि मिठाई के २ नग भी उठाकर उदरस्थ कर लिए। बातों-बातों में ही बिस्किट का पैकेट भी खोलकर उन्होंने मुझे भी १ खिलाया और शेष बिस्किट उन्होंने खा लिए। मेरी भी आत्मा उनको अल्पाहार प्राप्त करते देख तृप्त हो रही थी।
मैंने धीरे से कहा-“ठीक है दादा चलता हूँ।”
अब मुझे मनोविज्ञान में पढ़े हुए ‘टेलीपैथी’ शब्द का प्रायोगिक पता चलना शेष था।
आश्चर्य!!!! मन के अंदर बैठा हुआ एक पढ़ा-लिखा इंसान धीरे से मुँह उठाने लगा। एक क्षण को मन में यह भाव आया कि, यदि इस अनपढ़ व्यक्ति की जगह कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति होता तो मुझे इस सहयोग के लिए धन्यवाद जरूर देता। मैं पलट कर अपनी गाड़ी के साइड स्टैंड को उतार ही रहा था कि, भैया एकदम से सीट से उठकर तेजी से मेरी तरफ बढ़े और धीरे से बोले-“बाउजी, आप सोचोगे कैसा आदमी है ? धन्यवाद तक नहीं दे रहा, पर दिल से कह रहा हूँ धन्यवाद आपको नहीं, धन्यवाद राम जी को। उन्होंने यदि आपको यहाँ नहीं भेजा होता तो आप किसी कचरा पेटी तक ही जाते।”
उफ्फ!!!!!! इस अंतिम वाक्य ने मुझे धरातल पर ला पटका। अहंकार का हिमालय उस भारतीय मूल्यों से पगी आत्मा की ऊष्मा से पिघल कर गंगा की तरह बह गया।मानों मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया, और अहं बहता चला जा रहा था। उनके इस अंतिम वाक्य को सुनकर मेरे भी हृदय की भावनाएँ सचमुच प्रभु राम जी के प्रति श्रद्धावनत हो उठी। हम कई बार छोटी-छोटी बातों के लिए अपने आसपास के स्वार्थी मनुष्य जगत को भी धन्यवाद देने में कोताही नहीं बरतते, किंतु वास्तव में जिस ईश्वर ने यह सारी व्यवस्थाएँ बनाने के लिए उस मनुष्य को निमित्त बनाया है, उन प्रभु को धन्यवाद देना भूल जाते हैं।
मैंने आज पिछली बार वाली भूल नहीं की। जिन बहन को तुलसी सौंपी थी, उनका नाम नहीं पूछ पाया था, पर इन रिक्शा वाले भैया का नाम पूछ लिया। नाम में ही उनके पुरखों के संचित ज्ञान का सार छुपा था ‘रामभरोस अहिरवार’। रहने वाले उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के एक गाँव के हैं। यहाँ यह बताता चलूं, जो लोग कहते हैं ना चिंकी, मिंकी, चिंटू, पिन्टू कुछ भी नाम रख दो, उससे क्या फर्क पड़ता है ? यह फर्क पड़ता है।
आज पीएच-डी. की उपाधि का दम्भ पाले इस अज्ञानी को ज्ञान देने के लिए हृदय से रामभरोस भाई के प्रति आभारी हूँ। उन्होंने जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ मुझे पढ़ा दिया, जो कोई विश्वविद्यालय नहीं पढ़ा सकता था, लोक पढ़ाता है।
‘धन्यवाद’ मनुष्य का क्या ?, धन्यवाद उस प्रभु का, जिसने उस मनुष्य को कुछ करने के योग्य बनाया।
कानों में राम मंदिर के भूमिपूजन के समय कहे गए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक जी डॉ. मोहन भागवत के शब्द गूंज रहे थे -“यह राम मंदिर ही राष्ट्र मंदिर है। यह बन गया। संघर्ष समाप्त हुआ, पर अब क्या ? अब हमें अपने हृदय को अयोध्या बनाना होगा। अपने अन्दर के राम को जगाना होगा।” मुझे अभी यह करना शेष है, रामभरोस भाई ने यह कर दिखाया। यही है भारत का मन।
परिचय-डॉ. विकास दवे का निवास इंदौर (मध्यप्रदेश)में है। ३० मई १९६९ को निनोर जिला चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में जन्मे श्री दवे का स्थाई पता भी इंदौर ही है। आपकी पूर्ण शिक्षा-एम.फिल एवं पी-एच.डी. है। कार्यक्षेत्र-सम्पादक(बाल मासिक पत्रिका) का है। करीब २५ वर्ष से बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत हैं। सामाजिक गतिविधि में डॉ.दवे को स्वच्छता अभियान में प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित एवं गोवा की राज्यपाल डॉ. मृदुला सिन्हा द्वारा ब्रांड एम्बेसेडर मनोनीत किया गया है। आप केन्द्र सरकार के इस्पात मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति में सदस्य हैं। इनकी लेखन विधा-आलेख तथा बाल कहानियां है। प्रकाशन के तहत सामाजिक समरसता के मंत्रदृष्टा:डॉ.आम्बेडकर,भारत परम वैभव की ओर, शीर्ष पर भारत,दादाजी खुद बन गए कहानी (बाल कहानी संग्रह),दुनिया सपनों की (बाल कहानी संग्रह), बाल पत्रकारिता और सम्पादकीय लेख:एक विवेचन (लघु शोध प्रबंध),समकालीन हिन्दी बाल पत्रकारिता-एक अनुशीलन (दीर्घ शोध प्रबंध), राष्ट्रीय स्वातंत्र्य समर-१८५७ से १९४७ तक(संस्कृति मंत्रालय म.प्र.शासन के लिए),दीर्घ नाटक ‘देश के लिए जीना सीखें’,(म.प्र.हिन्दी साहित्य अकादमी के लिए) और हिन्दी पाठ्य पुस्तकों में ४ रचनाएं सम्मिलित होना आपके खाते में है। १००० से अधिक रचनाओं का प्रकाशन बाल पत्रिका सहित विविध दैनिक-मासिक पत्र-पत्रिकाओं में है,जबकि ५० से अधिक शोध आलेखों का प्रकाशन भी हुआ है।डॉ.दवे को प्राप्त सम्मान में बाल साहित्य प्रेरक सम्मान २००५,स्व. भगवती प्रसाद गुप्ता सम्मान २००७, अ.भा. साहित्य परिषद नई दिल्ली द्वारा सम्मान २०१०,राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास,दिल्ली सम्मान २०११,स्व. प्रकाश महाजन स्मृति सम्मान २०१२ सहित बाल साहित्य जीवन गौरव सम्मान २०१८ प्रमुख हैं। आपकी विशेष उपलब्धि म.प्र. शासन के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा समाहित करने हेतु गठित सलाहकार समिति में सदस्य,म.प्र. शासन के पाठ्यक्रम में गीता दर्शन को सम्मिलित करने हेतु गठित सलाहकार समिति में सदस्य,म.प्र. साहित्य अकादमी के पाठक मंच हेतु साहित्य चयन समिति में सदस्य। होना है। आपको ७ वर्ष तक मासिक पत्रिका के सम्पादन का अनुभव है। अन्य में सम्पादकीय सहयोग दिया है। आपके द्वारा अन्य संपादित कृतियों में- ‘कतरा कतरा रोशनी’(काव्य संग्रह), ‘वीर गर्जना’(काव्य संग्रह), ‘जीवन मूल्य आधारित बाल साहित्य लेखन’,‘स्वदेशी चेतना’ और ‘गाथा नर्मदा मैया की’ आदि हैं। विकास जी की लेखनी का उद्देश्य-राष्ट्र की नई पौध को राष्ट्रीय चेतना एवं सांस्कृतिक गौरव बोध से ओतप्रोत करना है। विशेषज्ञता में देशभर की प्रतिष्ठित व्याख्यानमालाओं एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में १५०० से अधिक व्याख्यान देना है। साथ ही विगत २० वर्ष से आकाशवाणी से बालकथाओं एंव वार्ताओं के अनेक प्रसारण हो चुके हैं। आपकी रुचि बाल साहित्य लेखन एवं बाल साहित्य पर शोध कार्य सम्पन्न कराने में है |