राधा गोयल
नई दिल्ली
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मैं स्नेह सुधा बरसाती हूँ, कोमल हूँ, पर कमजोर नहीं,
दम्भी का दम्भ मिटाने की, हिम्मत मुझमें पुरजोर रही।
कभी प्रेम पुजारिन बनकर, मैं मन्दिर में पुष्प चढ़ाती हूँ,
सम्मान पे ऊँगली उठ जाए, हाथों में खड्ग उठाती हूँ।
मैं लज्जा हूँ, मैं करूणा हूँ, मैं तो हूँ ममता का सागर,
नर भी खुद को धन्य समझने लगता है मुझको पाकर।
कभी प्रेमिका, कभी भार्या, भगिनी और सुता बनकर,
प्रेमी, पति, भाई, और पिता ने पाया एक अमूल्य रतन।
जिसने नारी की इज्जत की, उसने जीवन का सुख पाया,
बेइज्जत करने वालों ने, यहाँ महाभारत रचवाया।
खुद का अस्तित्व रखूँ कायम, फिर सागर में मिल जाती हूँ,
पथ की चट्टानों से टकराकर, अपनी राह बनाती हूँ।
हर बाधा से लड़ जाती हूँ, क्योंकि मैं सबला नारी हूँ,
बिना पिता के, भरत और लव-कुश की पालनहारी हूँ।
मैं अपना फर्ज़ नहीं भूली, सारे कर्तव्य निभाए थे,
सोती छोड़ बुद्ध गए, तब दुनिया के ताने खाए थे।
मैं सबला थी इसलिए दुखी न हुई, न ही फाँसी झूली,
अपमान झेलती रही सदा, पर अपना फर्ज़ नहीं भूली।
नारियाँ बहुत बलशाली हैं, दुःख को भी हँस कर सहती हैं,
नारी के आगे सब बाधाएं, घुटनों के बल रहती हैं।
जब-जब देवों पर विपद पड़ी, तब-तब ही मुझे पुकारा था,
कभी चण्डी और रणचण्डी बन, विपदा से उन्हें उबारा था।
जीवनदात्री,सुखदात्री है, सृष्टि की भाग्य विधाता है,
उसके बिना यहाँ शिव भी, केवल ‘शव’ ही रह जाता है॥