ललित गर्ग
दिल्ली
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लोकसभा चुनाव २०१९ की सरगर्मियां उग्र से उग्र होती जा रही है,राष्ट्र में आज ईमानदारी एवं निष्पक्षता हर क्षेत्र में अपेक्षित हैl चूँकि,अनेक गलत बातों की जड़ चुनाव है इसलिए वहां इसकी शुरूआत इस समय सर्वाधिक अपेक्षित है। बीते कुछ महीनों में चुनाव सुधार को लेकर देशभर में तमाम तरह की चर्चाएं हुई हैं,लेकिन विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि इसके लिये कोई भी राजनीतिक दल एवं राजनेता पहल करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। चुनाव आयोग की सक्रियता निश्चय ही स्वागत योग्य है। चुनाव लोकतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। लोकतंत्र में स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़ें खोखली होती जा रहीं हैं। चरित्र-शुद्धि के अभाव में चुनावशुद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चुनाव के समय हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा मत प्राप्त करने की अनैतिक तरकीबें निकालता हैl फलस्वरूप चुनाव अशुद्ध,अनैतिक एवं आपराधिक प्रवृति का होता जा रहा है। सभी दल राजनीति नहीं,स्वार्थ नीति चला रहे हैं। पूर्व के चुनावों में तमाम दलों ने ऐसे-ऐसे उम्मीदवारों पर दांव लगाया था,जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि थी। १६वीं लोकसभा में चुने गए हर तीसरे सदस्य पर आपराधिक आरोप थे। क्या १७वीं लोकसभा के लिये चुनाव मैदान में उतरे आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशी को नकारने का साहस दिखाने के लिये मतदाता ने मन और माहौल बनाने की ठानी है ? महत्वपूर्ण प्रश्न है कि चुनाव सुधार अपेक्षा क्या है ? इसकी एक बड़ी वजह लोगों का देश के राजनीतिक दलों में व्याप्त अपराध को लेकर पनपने वाला असंतोष है। जब-जब हमें चुनाव-प्रक्रिया में कुछ गलत महसूस होता है,तो हम चुनाव और इसमें सुधार की वकालत करते हैं। अभी १७वीं लोकसभा के लिए चुनाव-प्रक्रिया शुरू हो चुकी है,लेकिन चुनावी शोर में राजनीतिक दल उन्हीं मुद्दों का प्रचार करते दिख रहे हैं,जो उनके मुताबिक मतदाताओं को लुभा सकें,जबकि चुनाव के समय हर प्रत्याशी एवं राजनीतिक दल का यह चिंतन रहना चाहिए कि राष्ट्र को नैतिक दिशा में कैसे आगे बढ़ाया जाए ? उसकी एकता और अखण्डता को कायम रखने का वातावरण कैसे बनाया जाए ?,लेकिन आज इसके विपरीत स्थिति देखने को मिल रही है। ऐसा नहीं है कि अब तक चुनाव सुधार को लेकर कोई प्रयास नहीं हुआ है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का चुनाव निष्पक्ष एवं शान्तिपूर्वक संचालित करने में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी है और उसके बाद भी यह प्रक्रिया जारी है। अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी ने भी लोकतंत्र शुद्धि अभियान के माध्यम से चुनाव शुद्धि के व्यापक प्रयत्न किये। इन दिनों रिखबचन्द जैन के नेतृत्व में भारतीय मतदाता संगठन भी चुनाव से जुड़ी खामियों को दूर करने के लिये जागरूकता अभियान संचालित कर रहा है। बात केवल इन गैर-सरकारी प्रयत्नों की ही नहीं है। सरकार भी अपने ढंग से चुनाव शुद्धि के प्रयत्न करती रही है। मई,१९९९ में तैयार गोस्वामी कमेटी रिपोर्ट इस मामले में मील का पत्थर है। दिनेश गोस्वामी की अगुवाई में इस कमेटी ने जो रिपोर्ट तैयार की,उसमें १०७ सिफारिशें की गई थीं। यह तो साफ नहीं है कि इन सिफारिशों को किस हद तक लागू किया गया,लेकिन व्यापक तौर पर यही माना जाता है कि इसकी कई सिफारिशों पर गौर ही नहीं किया गया। हालांकि,इससे पहले १९९३ में वोहरा कमेटी भी बनाई गई थी,जिसने ‘राजनीति के अपराधीकरण’ की बात कही थी। चुनाव प्रक्रिया पर संगठित या असंगठित अपराध के असर को समझने की यह पहली कोशिश थी। देश में चुनावी भ्रष्टाचार एवं अपराध द्रौपदी के चीर की भांति बढ़ रहा है। उसके प्रतिकार के स्वर एवं प्रक्रिया जितनी व्यापक होनी चाहिए,उसका दिखाई न देना लोकतंत्र की सुदृढ़ता को कमजोर करने का द्योतक है। बुराई और विकृति को देखकर आँख मूंदना या कानों में अंगुलियां डालना विडम्बनापूर्ण है। इसके विरोध में व्यापक अहिंसक जनचेतना जगाने की अपेक्षा है। आज चुनावी भ्रष्टाचार का रावण लोकतंत्र की सीता का अपहरण करके ले जा रहा है। सब उसे देख रहे हैं,पर कोई भी जटायु आगे आकर उसका प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं है। भ्रष्टाचार के प्रति जनता एवं राजनीतिक दलों का यह मौन,यह उपेक्षाभाव उसे बढ़ाएगा नहीं तो और क्या करेगा ? देश की ऐसी नाजुक स्थिति में व्यक्ति-व्यक्ति की जटायुवृत्ति को जगाया जा सके और चुनावी भ्रष्टाचार के विरोध में एक शक्तिशाली समवेत स्वर उठ सके और उस स्वर को स्थायित्व मिल सके तो लोकतंत्र की जड़ों को सिंचन मिल सकता है। २०१५ में २०वें विधि आयोग ने ‘इलेक्टोरल रिफॉर्म’ (चुनाव सुधार) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट सौंपी। आयोग की इस २५५वीं रिपोर्ट के पहले अध्याय में साफ-साफ कहा गया है कि चुनाव प्रणाली में सुधार लाने के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए,उसकी पूरी जानकारी इस रिपोर्ट में है। उल्लेखनीय है कि,विधि आयोग की २४४वीं रिपोर्ट राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने और गलत हलफनामा दाखिल करने पर उम्मीदवार को अयोग्य ठहराने की वकालत करती है। चुनाव शुद्धि की एक बड़ी बाधा चुनाव से जुड़ा आर्थिक अपराधीकरण है। राजनीतिक चंदे के रूप में पनप रहा यह अपराध गंभीर एवं चिन्तनीय है,क्योंकि पहले तो चुनावों में खर्च करने के लिए चंदा दिया जाता है,फिर चुनी जाने वाली सरकारों से उस चंदे के बदले गैर-कानूनी काम करवाये जाते हैं। राजनीतिक चंदा काले धन को उपयोग में लाने का माध्यम भी है। चुनाव की इस बड़ी विसंगति को दूर करने के लिये और चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिये भाजपा सरकार ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ की व्यवस्था की थी,लेकिन यह भी पूरी तरह से चुनाव सुधार की जरूरतें पूरी नहीं करता। अव्वल तो इसमें न तो देने वाले की और न चंदा पाने वाले की जानकारी जाहिर होती है,जिस कारण यह पारदर्शी व्यवस्था नहीं है,और फिर इसमें किसी संस्थान द्वारा एक वित्तीय वर्ष में पिछले तीन साल के अपने शुद्ध लाभ का सिर्फ ७.५ फीसदी चंदा देने की सीमा भी हटा दी गई है। इससे कोई भी शख्स शेल या अनाम संस्थान बनाकर राजनीतिक दलों को मनमाफिक चंदा दे सकता है। चुनाव को विकृत करने में सांप्रदायिक भावना और जातियता भी मुख्य कारण है। योग्यता का चिंतन किए बिना धर्म या जाति के आधार पर किया गया चुनाव उसकी शुद्धि के आगे प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। वर्तमान स्थिति यह है कि राजपूत राजपूत को वोट देगा,जाट जाट को वोट देगा,अहीर अहीर को वोट देगा,मुसलमान मुसलमान को तथा ब्राम्हण ब्राम्हण को वोट देगा। इससे राष्ट्र खंडों में विभक्त होकर निःशक्त हो जाता है,क्योंकि जातिय लोगों के मतों से चुनकर आया हुआ सांसद या विधायक अपनी जाति के विकास के बारे में ही ज्यादा सोचेगा। हमारी चुनाव प्रणाली कंटीली झाड़ियों में फँसी पड़ी है। प्रतिदिन आभास होता है कि अगर इन काँटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जाएगा। सारे ही दल एक जैसे हैं
,यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। राजनीतिज्ञ पारे की तरह हैं,अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। यही कारण है कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है। धनबल और बाहुबल लोकतंत्र पर हावी होने लगे हैं। फिर भी,किसी पार्टी को चुनाव सुधार की प्रक्रिया जरूरी नहीं लगती। यही वजह है कि इस मुद्दे पर मत भी नहीं मांगे जा रहे,मगर चुनाव सुधार का मसला यदि लोकतंत्र के इस महापर्व में कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाता है,तो लोकतंत्र का नया सूरज कैसे उगेगा ?