शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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फ़रेब-धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, नक़ली पदार्थों का कारोबार आदि समाज में फैली ऐसी विकृतियाँ हैं, जो लोगों ने अपनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सुगम साधन के रूप में उत्पन्न की हैं। दीर्घ समय से चली आ रहीं इन विकृतियों तथा अपने तौर-तरीक़ों में शीघ्रता से बदलाव ला पाना प्रचलित व्यवस्थाओं व नैतिक मूल्यों को चुनौती है। आज मनुष्य की बुद्धि मशीनीकरण को भी मात देने में सक्षम है। विज्ञान यदि मनुष्य की असंवैधानिक करतूतों को रोकने के संसाधन बना रहा है, तो दूसरी ओर उन्हीं संसाधनों की सहायता से आए दिन कुरीतियों के नए रास्ते भी झटपट तैयार हो रहे हैं। यानि कि ऐसे लोगों को असंवैधानिक कार्य करने में दिलचस्पी बढ़ने से लज्जा-शर्म आदि में नैतिकता नज़र नहीं आती।
आज की भाषा में, सरकारी योजनाओं, केंद्रीय व राजकीय शिक्षा संस्थानों आदि यानि प्रत्येक क्षेत्र की संस्थाओं की वेबसाइट्स को सलाहकारों ने अपनी वेबसाइट से जोड़ रखा है। अर्थात् संस्थाओं से सीधा संपर्क किसी भी हालत में प्राप्त न होकर इनके द्वारा सुविधाओं के नाम से अधिक है। ये फिर मनचाहा पैसा वसूलती हैं और इनमें भी कई अधिकतर वेबसाइट्स २-४ ग्राहकों के कार्य सही तरीक़े से करती हैं। बहुत ही लचीले तरीक़े से सारा व्यापार चलता रहता हैं। मसलन् शिक्षा, नौकरी देने वाली वेबसाइट पर संचालक द्वारा फ़ार्म भरने के नाम पर रकम वसूली, फिर कुछ ओर रकम की माँग, फिर साक्षात्कार में सफल होने के बाद नियुक्ति-पत्र देने से पहले कुछ शर्तों के साथ पुन: रक़म की माँग और अंतत: सबके पश्चात नियुक्ति पत्र ही प्राप्त न होना और यकायक उस वेबसाइट का आपसे सम्पर्क टूट जाना आदि।
इस दिशा में सरकार ने महज़ दिखावे के क़ानून, नियम व सिद्धांत बनाकर रखे हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या की मारामारी में कोई भी ऐसी वेबसाइट्स का संज्ञान नहीं लेना चाहता, न झमेला मोल लेना चाहता है क्योंकि हर क्षेत्र में कार्य को करने वाले तो व्यक्ति ही हैं। साठ-गाँठ चल रहा यह व्यापार किसी को भनक तक नहीं लगने देता। सरकारी बोल वाणियों में सब सही प्रक्रियाएँ वास्तविकता से कोसों दूर होने पर भी व्यवस्थित दिखाई जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार को चलाने वाले भी व्यक्ति हैं, मशीनें बनाने वाले, संभालने व चलाने वाले वाले भी इसी भूमि के व्यक्ति हैं। महज़ क़ानून बनाने से ऐसी समस्या हल नहीं की जा सकती। इसके लिए एक मज़बूत ईमानदार तंत्र की भी आवश्यकता होती है, जो प्रत्येक नागरिक में इतना भय ज़रूर उत्पन्न कर दे कि किसी भी कार्य में बेइमानी होने पर घोर अपराध के तहत कड़ी कार्रवाई होना तय है, जैसे अन्य देशों में छोटी-छोटी चोरी करने पर पकड़े जाने पर चोर के हाथ ही सरेआम काट देते हैं। ख़ैर, इस तरह के तरीक़े न अपनाकर कुछ सख़्ती सरकार को बरतनी ही चाहिए। ऐसे तो समाज व राष्ट्र हित में कई काम किए जा रहे हैं, लेकिन सख्ती भी उतनी ही आवश्यक है, अन्यथा जनहित के कार्य धीरे-धीरे खड्डों में ही पुन: समा जाएँगे।
इस प्रकार की समस्याओं से निपटने के लिए सरकार को ही स्थाई समाधान निकालना चाहिए। इस दिशा में सुरक्षित व्यवस्था की मुख्य भूमिका सरकार की ही होती है। सरकार में ही इतनी शक्ति होनी चाहिए कि उन क़ानूनों को तत्परता-कठोरता से लागू कर सके। ख़ाली वाणियाँ राष्ट्रहित नहीं कर सकती, अराजकता, कुरीतियाँ व विकृतियों की जड़ों को मूल नींव से नष्ट करने की ज़िम्मेदारी शासन-प्रशासन की है।
लाखों-करोड़ों लोग वेबसाइट्स के माध्यम से मूर्ख बनाए जा रहे हैं। सरकारें मात्र साइबर अपराध बता भ्रष्टाचार के जुगाड़ को विभाग दर विभाग विभाजित कर आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेती है। वास्तव में अब समिति दर समिति, विभाग दर विभाग कहने से काम नहीं चलेगा। ऐसी अव्यवस्थाओं को रोकने के लिए सरकार को ही जाल पर जाल डालना होगा, क्योंकि हूबहू नकल कर चलने वाली ऐसी वेबसाइट्स की संख्या आज हज़ारों लाखों में है।