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तकलीफ

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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क्यों किसी के दिन उदास,
और रातें बेरुख़ी-सी होती है…।

एक छत के नीचे रहकर भी,
लोग तन्हा ज़िंदगी जीते हैं…।

रोज़ाना आँखों के सामने से गुज़रते,
कई चेहरे अनजाने से लगते रहते हैं…।

नज़रें शायद कुछ बोलती हैं लेकिन,
होंठों पर लफ़्ज़ क़ैद होकर रह जाते हैं…।

गर रुह और जिस्मों को बिखरना ही है,
तो टकराकर क्यों बिखर नहीं जाते हैं…।

उम्र का कारवां यूँ ही गुजर जाता है,
मन में सवालों के गुबार उठे रहते हैं…।

यूँ ही गुज़र जाती है जिंदगी बेमानी-सी,
क्यों खुशियों का समा बाँधा जाता नहीं है…॥

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