नताशा गिरी ‘शिखा’
मुंबई(महाराष्ट्र)
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सिमट जाते हैं दायरे,
बंद हो जाते हैं गलियारेl
रोशनदान ही रह जाता है,
जगमगाती दुनिया को ताकने के लिएl
उस पर भी पड़ गया पर्दा,
पाबंदी….नहीं,परम्परा हैl
खींची जाती है लक्ष्मण रेखा,
मांग में…सिंदूर पड़ते हीl
पाव ना पसारे,
छोटी-सी चादर काफी हैl
शिकंजे से भी ज्यादा कसाव,
पाँच मीटर की साड़ी मेंl
बार-बार लिपटती,
तन को जकड़ लेतीl
परम्परा की तहजीब में,
कोई फर्क नहीं रह जाताl
हाथ में हथकड़ियाँ हो या चूड़ियाँ,
पैर में बेड़ियाँ हो या झांझरियाl
बन जाती है मजबूरी,
दे दी जाती है मंजूरीl
फिर कभी तरसते हैं,
अपने ही अस्तित्व कोl
दो आशियाने के परवानों में,
खुद को सामा बना रखा उनके घरानों मेंl
फिर कभी आईने में,
खुद को सूनी आँखों से निहारतेl
अपना ही घोंसला फिर,
कंटीला नजर आता हैl
खुद का वजूद,
खुद को नहीं भाता हैll
बारिश की बूंदें आक्रोश से,
तमतमाई लगती हैंl
बड़ों का साया नागफनी,
की परछाई लगती हैl
फिर भी अरमानों मे पंख लगाकर,
हम आसमां में विलीन नहीं हो जातेl
दहलीज को लांघ कर,
तुम्हारी परम्परा को ठेस नहीं पहुंचातेl
सिमटे हूऐ दायरे में,
बन्द गलियारे मेंl
हैं तुम्हारा घर सजाते…,
हाँ हैं तुम्हारा घर सजातेll
परिचय-नताशा गिरी का साहित्यिक उपनाम ‘शिखा’ है। १५ अगस्त १९८६ को ज्ञानपुर भदोही(उत्तर प्रदेश)में जन्मीं नताशा गिरी का वर्तमान में नालासोपारा पश्चिम,पालघर(मुंबई)में स्थाई बसेरा है। हिन्दी-अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाली महाराष्ट्र राज्य वासी शिखा की शिक्षा-स्नातकोत्तर एवं कार्यक्षेत्र-चिकित्सा प्रतिनिधि है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत लोगों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की भलाई के लिए निःशुल्क शिविर लगाती हैं। लेखन विधा-कविता है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-जनजागृति,आदर्श विचारों को बढ़ावा देना,अच्छाई अनुसरण करना और लोगों से करवाना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद और प्रेरणापुंज भी यही हैं। विशेषज्ञता-निर्भीकता और आत्म स्वाभिमानी होना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“अखण्डता को एकता के सूत्र में पिरोने का यही सबसे सही प्रयास है। हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा घोषित किया जाए,और विविधता को समाप्त किया जाए।”