हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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ओ नारी, तेरे जीवन की भी, क्या अजीबो-गरीब कहानी है ?
दमन में बीता बचपन है तेरा, और जुर्म में बीती जवानी है।
किशोर हुई मासिक धर्म को झेला,
सब झेल हुई सयानी है
यौवन में कर शादी पड़ती,
गृह त्याग की रसम निभानी है।
गर्भ का पालन, प्रसव पीड़ादि,
भी तो जुर्म की ही निशानी है
जो कुदरत ने किया सिर्फ तेरे ही साथ,
बातें किसे बतानी है ?
बड़ा सहज है कहना नर समाज को,
यह तो रीत पुरानी है
अपने घर लगी आग दु:ख देती है,
सेंकने को आग बेगानी है।
तारीफ की मारी नारी बेचारी, निज शोषण स्वयं करवाती है
कुरूप हुई नकारी है जाती, सुरूप चापलूसी में आ जाती है।
कुत्ते का बैरी कुत्ता फिर,
एक दूसरी को ही नीचा दिखाती है
श्रृष्टि रचयिता होकर भी,
पुरुष के आगे खुद को नचाती है।
करे श्रृंगार जो घना बेचारी,
तो लूटपाट की बात बन जाती है
कुरूप तो शोषित, सुरुप अवशोषित,
जाती बेचारी बलाती है।
जाए तो जाए-जाए किधर को ?
आगे कुआं खाई पीछे आती है
जहाज का पंछी फिर वहीं लौटेगा,
जानती यह नर की जाति है।
सास-बहू के झगड़े में भी,
नारी ही नारी का शोषण करवाती है।
घर-संसार है तुझसे ओ देवी!अपने-आपको ही क्यों लड़ाती है…?