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पृथ्वी हूँ मैं

असित वरण दास,
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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पृथ्वी हूँ मैं,
मौन रहती
एक नीलेपन में,
चंचल रहती
छलछल बहती शिशु नदी में।
निःस्तब्ध देखती,
पर्वत शिखर पर
सूर्यकिरणों का,
निर्बाक उत्तरण
अभिमानी वर्फ़ का,
पिघलकर यूँ ही
एक नदी में,
अनायास रूपांतरण।
देखती रहती,
पर्वत शिखर से अग्नि उदगार
अंतस सलिला में अहंकार का,
विलय निरंतर।
वृक्ष जितने हैं मेरे,
बाहु बंधन में
है आश्रय,जीवन रक्षक,
मेरे ही अचूक मूल मंत्र में।
उठाया कुठार तुमने और
लहू बहाया वृक्ष वक्ष से।
नदी,झील में मृत्यु घोलकर,
वंचित किया है जीवन रस से
वायु में मिलाकर विषाणु और,
दुर्गम बनाया स्थलज जीवन
सभ्यता के कलंकित पृष्ठ पर।
तब मैं भी जाग उठी हूँ,
जठर में से अग्नि लेकर
विनाश का प्रण कर चुकी हूँ।
बादल,बरसात के निर्झर मन में,
हर वृक्ष के अंतर ध्यान में
हर प्राणी के तप्त स्पंदन में,
पृथ्वी हूँ मैं,माता हूँ मैं
स्नेह में अविरल निश्चल हूँ मैं,
क्रोध में तप्त ज्वाला हूँ मैं
हर अन्याय का उत्तर हूँ मैं।
हर रोग का निदान हूँ मैं,
पृथ्वी हूँ मैं,पृथ्वी हूँ मैं॥

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