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पौध उगाते रहिए

ज्ञानवती सक्सैना ‘ज्ञान’
जयपुर (राजस्थान)

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वक्त की धरा पर सपनों की मखमली,
पौध उगाते रहिए
मन के आँगन से अहम-वहम को बुहार,
रिश्ते निभाते रहिए।
घर के आँगन में कोई रह न जाए अकेला,
अपनेपन का जाम पिलाते रहिए
अपनों के बीच कुछ कुछ बोझिल मन की,
बातें सुनते-सुनाते रहिए।
उसे भी होंगे हमसे,अपने गिले-शिकवे,
नादां समझ मिटाते रहिए।
वक़्त का क्या भरोसा,
नालायक-जिगरी से मिलते-मिलाते रहिए।
आसपास कहीं कोई नज़र आ ही जाए अपना,
नज़र घुमाते रहिए।
सो न जाए भाग्य,
अपनी मेहनत और लगन से उसे जगाते रहिए।
जड़ें सींचना है ज़रूरी,
अपने हमजिगर से प्यार जताते रहिए।
सानिध्य से किलकारियों को सींच,
संस्कारों के बीज बोते-बुआते रहिए।
बंजर न हो जाए हमारी ज़मीं का तन-मन,
फूल से लदे,वृक्ष उगाते रहिए
ख़ुशनुमा रहे सफर,
अपने हमराहियों को हँसते-हँसाते रहिए।
हसरतों की तरफ़ अपना,हर दिन,
हर पल कदम बढ़ाते रहिए॥

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