आशीष प्रेम ‘शंकर’
मधुबनी(बिहार)
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क्यूँ कहते हो कि ये मुझसे नहीं होगा ?
क्यूँ कहते हो कि ये मेरे लिए बना नहीं होगा ?
बनी तो दुनिया भी सिकंदर के लिए नहीं थी,
पर उसकी मेहनत में कोई शक भी तो नहीं था।
वो बैठा न था,किस्मत के भरोसे,
वो चलता न था,काफिलों के भरोसे।
अकेले ही चल पड़ा सुनसान राहों पर,
जहाँ उसके जाने की कोई सड़क भी तो नहीं थी।
उसने सोचा न कभी ये,कि क्या होगा हमारा,
इस बेगानी राह में कोई होगा सहारा।
खुद में था वो धधकता हुआ ज्वालामुखी,
फट जाए जहाँ कर दे दुनिया नयी।
ये था उसके आत्म विश्वासों का जाम,
जिसने लड़ ली अकेले ही दुनिया तमाम।
खुद पे रख उम्मीद कि देखने वाले भी देखें,
ये तो अब पागल हो गया,सोचने वाले भी सोचें।
अरे देखना उनका काम,सोचना उनका काम,
तेरे जीतने के बाद कोसना उनका काम।
तेरे जीतने के बाद कोसना उनका काम,
एक रावण था चारों दिशाओं में वीर।
इन्द्र को जीत ली हुई सृष्टि अधीर,
क्या कोई था जो पछाड़ सके उसको ?
किसी में थी इतनी क्षमता जो मार सके उसको ?
पर उसने काटा वही जो था बोया गया।
उसने पाया वही,जो थी उसकी सजा,
पर एक प्रश्न उठती है मेरे मन में सदा ?
सृष्टि में उससे बहुधा कोई ज्ञानी न था,
तो क्या लगता है कि वो न पहजान सका ‘राम’ को ?
अहंकार में उसने खो दिया अपनी आन को ?
नहीं उसने देखा कि मैं हूँ दुनिया का वीर।
तीनों लोकों,चारों आयाम में सबसे सबसे बलवीर,
अब ये ब्रम्हांड भी उसको कम लगता था।
जीतने के लिए कुछ नया सोच था,
उसने सोचा कि क्या होगा उसमें प्रबल।
जिसने सृष्टि बना दी जिसका मैं एक अचल,
उसकी अब भी तमन्ना खत्म न हुई।
कैसे हो उनसे मिलना जिसने सृष्टि रची,
अपने को आजमाने की ख्वाहिश थी उसे।
इधर कोई न शेष जिससे वो लड़े,
इसलिए उसने लाया माँ सीता को हर।
पर कोई न थी उसके मन में विचल,
यदि ऐसा रहता उसके मन का विचार।
माँ सीता न दे पाती पतिव्रत का सार,
लोग पूछेंगे कि अंततः क्यूँ हार गया वो।
क्यों खुद से ही खुद का शिकार हुआ वो,
ये जानता था वो कि शायद जाऊँ मैं हार।
फिर भी कर्तव्य पथ से हुआ न उबाल,
पर क्या होगा परिणाम ये भी सस्ता न था।
एक समय राम को भी लगा जोड़ था,
अंततः राम को भी ये कहना पड़ा।
कि तुम जो भी थे रावण भले थे गलत,
पर तुमसे मिलना भी क्या और था।
पर तुमसे मिलना भी क्या और था,
कि हमारे भी अंदर एक बैठा है जान।
एक कोने में रावण तो दूजे में राम,
पहले रावण जगा जीत दुनिया तमाम।
फिर अहंकार को फेंक बैठेंगे राम..,
फिर अहंकार को फेक बैठेंगे राम…॥
परिचय-आशीष कुमार पाण्डेय का साहित्यिक उपनाम ‘आशीष प्रेम शंकर’ है। यह पण्डौल(मधुबनी,बिहार)में १९९८ में २२ फरवरी को जन्में हैं,तथा वर्तमान और स्थाई निवास पण्डौल ही है। इनको हिन्दी, मैथिली और उर्दू भाषा का ज्ञान है। बिहार से रिश्ता रखने वाले आशीष पाण्डेय ने बी.-एससी. की शिक्षा हासिल की है। फिलहाल कार्यक्षेत्र-पढ़ाई है। आप सामाजिक गतिविधि में सक्रिय हैं। लेखन विधा-काव्य है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में केसरी सिंह बारहठ सम्मान,साहित्य साधक सम्मान,मीन साहित्यिक सम्मान और मिथिलाक्षर प्रवीण सम्मान हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-जागरूक होना और लोगों को भी करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-रामधारी सिंह ‘दिनकर’ एवं प्रेरणापुंज-पूर्वज विद्यापति हैं। इनकी विशेषज्ञता-संगीत एवं रचनात्मकता है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“हिन्दी हमारी भाषा है,और इसके लिए हमारे पूर्वजों ने क्या कुछ नहीं किया है,लेकिन वर्तमान में इसकी स्थिति खराब होती जा रही है। लोग इसे प्रयोग करने में स्वयं को अपमानित अनुभव करते हैं,पर हमें इसके प्रति फिर से और प्रेम जगाना है,क्योंकि ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। इसे इतना तुच्छ न समझा जाए।