पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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“माँ मैं नर्वस फील कर रही हूँ, इतने बड़े स्टेज पर बैठ कर गीत गाना मुझसे नहीं होगा। मैं अपना नाम वापस लेती हूँ।”
सरिता जी ने बेटी के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा,- “लाड़ो, जीवन में ऐसे अवसर बार- बार नहीं मिलते हैं। तुम्हें अपनी- प्रतिभा सबके समक्ष प्रदर्शित करने का अवसर मिल रहा है, तो तुम नाम वापस लेने की बात कर रही हो ? सबसे पहले माँ वीणा वादिनी को नमन करना, फिर मंच को प्रणाम करके जैसे सामान्य रूप से जैसे गाया करती हो, वैसे ही अपना गीत गाना। तुम्हें बड़े-छोटे स्टेज से क्या मतलब ?”
स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में टाउन हॉल में निया को एक गीत प्रस्तुत करना थ। वह थोड़ी नर्वस थी, क्योंकि इतने बड़े मंच पर उसने प्रस्तुतिकरण नहीं किया था। आज शहर के गणमान्य लोग वहाँ उपस्थित होंगें।
शहर की मेयर अभिलाषा जी मुख्य अतिथि थीं। जब वह वहाँ पहुँची तो गाड़ियों की लंबी कतार देख कर उसके हाथ-पैर ठंडे होने लगे थे, तब माँ-पापा ने उसे हिम्मत दिलाई थी।
“बेटा घबराने का क्या काम है…! अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर सबको नहीं मिलता। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हें इतना बड़ा मंच मिल रहा है।”
मध्यमवर्गीय माता-पिता की बेटी निया को भगवान् ने फुर्सत से गढ़ा था…गोरा संगमरमरी रंग, तीखे नैन-नक्श और हिरणी-सी चंचल चितवन, घुँघराले बाल, जिनकी लटें उसके माथे पर झूल कर उसके सौंदर्य को द्विगुणित कर रहीं थी। आज वह सफेद साड़ी पहन कर आई थी, पूर्णरूपेण सरस्वती की साक्षात् प्रतिमा-सी प्रतीत हो रही थी।
जब उसका नाम बोला गया, तो हॉल में कोलाहल मचा हुआ था, क्योंकि वह कोई जाना-पहचाना नाम नहीं था, परंतु जब उसने गाना शुरू किया तो पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया, और जब समाप्त किया तो पूरा हॉल तालियों के शोर से काफी देर तक गूँजता रहा था।
अभिलाषा जी अपने स्थान से उठ खड़ी हुईं थीं और उसे पास बुला कर पीठ थपथपा कर शाबासी दी थी। वह खुशी के अतिरेक में झूम उठी थी।
एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि किसी नीरज जी का पापा के पास फोन आया कि अभिलाषा जी को निया अपने बेटे के लिए बहुत पसंद आई है, इसलिए वह आपसे मिलना चाहती हैं। मनोहर जी के लिए सहसा विश्वास करने वाली बात ही नहीं थी। घर में विचार विमर्श चल ही रहा था… तो निया की माँ सरला जी इस रिश्ते के लिए बिल्कुल भी राजी नहीं हो रहीं थीं, परंतु यह क्या…! अभिलाषा जी तो अपने लाव- लश्कर के साथ एक दिन उनके घर आ खड़ी हुईं थीं।
“मैं अपने बेटे अन्वय के लिए निया बिटिया का हाथ माँगती हूँ।” उनकी जल्दबाजी देख कर सबके मन में संशय की दीवार खड़ी हो गई थी, लेकिन फिर भी अन्वय के संग मीटिंग करना तय हुआ था। स्मार्ट, गोरा-चिट्टा ६ फुट लंबा राजकुमार-सा अन्वय पहली निगाह में ही निया को भा गया। वह आईआईटी कानपुर से गोल्ड मेडलिस्ट था। ‘कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली…’ लेन-देन वाली बात ही नहीं थी… बस बेटी चाहिए थी…। कहीं कुछ गड़बड़ तो अवश्य है, परंतु दिखाई नहीं पड़ रही है.. अजीब पशोपेश की स्थिति थी।
अन्वय के पापा राजेश जी ने निया से उसकी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी पूछी थी। कोई वंशानुगत बीमारी, दिल, किडनी आदि में कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या तो नहीं…!
उनका प्रश्न सुन कर निया को पहले तो अटपटा लगा, परंतु फिर सोचने लगी कि अच्छी बात है कि ये लोग स्वास्थ्य के प्रति इतने सचेत हैं।
शाही अंदाज में खूब धूमधाम से सगाई की रस्म हुई… होती भी क्यों न…! आखिर मेयर के बेटे की सगाई थी। तभी अन्वय की छोटी बहन आस्था आकर बोली, “- भइया ठीक तो हो, थक तो नहीं रहे!”
वह स्वर्णिम भविष्य के सपनों में डूबी हुई थी। क्षणभर को मन में प्रश्न चिन्ह तो उठा था…। वह भी तो बराबर खड़ी हुई है, पूछना तो उससे चाहिए…। फिर सोचने लगी -होगा भाई-बहन के बीच का प्यार…।
अन्वय से फोन पर बात होती, लेकिन ज्यादा लंबी नहीं। अब अभिलाषा जी को जल्दी शादी करनी थी…। पापा तैयारी के लिए समय चाह रहे थे…, लेकिन बड़े आदमी के सामने साधारण लोग और वह भी लड़की वाले… अंततः झुक ही जाते हैं।
वहाँ से आए डायमंड, पन्ना, रूबी के सेट देख सबकी आँखें चौंधिया उठीं थीं…। साड़ी, लँहगे आदि क्या नहीं आया था…। सभी लोग उसके भाग्य से ईर्ष्या कर रहे थे। वह भी अन्वय जैसा पति और प्रतिष्ठित परिवार पाकर अपने सौभाग्य पर अचंभित और गर्वित दोनों ही थी।
शादी के ३ दिन ही बाकी थे। कार्ड बँट चुके थे, रिश्तेदारों का आगमन हो चुका था और घर मेहमानों से भरा हुआ था। तभी अभिलाषा जी के एक काफी नजदीकी रिश्तेदार आए और इस शादी के पीछे की मुख्य वजह बताई,-“अन्वय को दिल की गंभीर बीमारी है और वह निया की बोन मैरो द्वारा बेटे का जीवन बचाना चाहती हैं। मैंने आपको लड़के की बीमारी के बारे में आगाह कर दिया है, आप चाहें तो उन लोगों को मेरा नाम भी बता सकते हैं। मेरे-उनके रिश्तों में कड़वाहट ही तो आएगी।
आप डर क्यों रहे हैं ? ज्यादा से ज्यादा रिश्ता ही तो टूट जाएगा!अब आपकी इच्छा…! जो ठीक समझें।” कह कर वह चले गए थे,
लेकिन सबकी खुशियों पर तुषारापात हो चुका था। लोगों के चेहरे पर कालिमा छा गई थी… माहौल गमगीन और तनावपूर्ण था। मम्मी-पापा ने एक पल में रिश्ता तोड़ देने का निर्णय कर लिया। माँ-पापा और सारे रिश्तेदार अभिलाषा जी की धोखेबाजी से क्रोधित थे।
निया ने अपने को कमरे में बंद कर लिया था। वह ऊहापोह और अनिश्चय की मनःस्थिति में कोई भी निर्णय नहीं कर पा रही थी।
तभी निया ने निर्णय कर लिया,-मैं बोन मैरो तो दूँगी, क्योंकि उससे किसी को जीवनदान मिलेगा… लेकिन धोखेबाज लोगों के साथ शादी नहीं करूँगीं।