कुल पृष्ठ दर्शन : 245

मजदूर या मजबूर…

दुर्गेश कुमार मेघवाल ‘डी.कुमार ‘अजस्र’
बूंदी (राजस्थान)
******************************************************************

बैठा है इंतजार में,
कृपा की तुम्हारे।
भूखी आशा से,
हर आने-जाने वाले को
निहारे।

हाथ में पकड़े है,
कपड़े में बंधी
दो मोटी-मोटी रोटियां,
और प्याज।
मन में है कई चिंताएं,
बढ़ रहा है महाजन का
चौगुनी गति से ब्याज।

बच्चों की माँ ने
कहा था बांधते हुए,-
“घर में नहीं रहा राशन
आते हुए ले आना।”
पुत्री भी
रोते हुए आई थी,-
“पिताजी किताबें भी लाना।”

दुहाई भी किसको दे ?
वह अपनी दुरावस्था की।
सोच सभी घूम रही है,
अपनी दीन अवस्था की।
परंतु तीन दिन से,
मिलती भी नहीं मजदूरी है।
हाँ साहब! मजदूर की,
यही तो मजबूरी है।

फिर भी लगातार,
इसी क्रम मैं बैठ जाता है
चौराहे पर।
हर दिन,हर वार
आकर किसी के इंतजार में।

कि आज नहीं मिली,
तो कल तो मिल ही जाएगी।
किस्मत भी कभी ना कभी तो
मेरी दीनता पर तरस खाएगी।
रोटी भी देखकर,
उसकी अवस्था गाफिल है।
मेरे लिए ही तो है इसका जीना,
और मरना तिल-तिल है।

मिले मजदूरी तो
दो दिन जीना आसान हो जाए,
नहीं तो मुहाल तो
सदा बना रहता है।
चूल्हा भी न जाने क्यों,
बरसात से या हालात से
रह-रहकर ही सुलगता है।
और भी कई बैठे हैं,
इसी इंतजार में।
नाव उनकी भी अटकी है,
जैसे मझधार में।

सबकी अपनी-अपनी मजबूरी,
और दास्तानें हैं।
कोई भले ही उम्र में कच्चा है,
परंतु निकला कमाने है।
मन में ख्वाहिशें हैं,
पढ़ने और जमाने में
आगे बढ़ने की।
परंतु बांधती दीनता है
और रोक रखती है,
न कुछ कहने की।

एक बाला हाथ पीले कर,
अभी-अभी ससुराल आई है।
मेहंदी ने भी रंग न छोड़ा,
पर क्या करें रुसवाई है।
पति के साथ
जो जीवन मिला,
वह सुधारना तो है।
विवाह का जो
कर्ज चढ़ा पति पर,
वह भी मिलकर
उतारना तो है।

एक अति वरिष्ठजन,
शरीर पर
झुर्रियों की भरमार लिए,
दे रहा दुहाई है ।
जमाने का बोझ
अभी भी है उसके कंधों पर,
और मजबूरी यह
कि करनी पेट भराई है।

एक किशोरी,
जीवन के सुहाने सपनों को
घर पर ही छोड़ आई है।
पिता की आत्मा में भी,
स्वर्ग से देखकर,
फूटे रूलाई है।
सपने हैं अधूरे,
और केवल हुई
अभी सगाई है।
माँ के साथ निकली है,
वह भी
करने अपनी भरपाई है।

एक के तो
स्वाभिमान को भी,
इतना ऊपर पाता हूँ,
मेरे सब अंग होते हुए भी,
उसके समक्ष
कमतर हो जाता हूँ।
अंग की कमी है,
पर हिम्मत मर्द-सी बंधी है।
आत्मा में है परवाज,
परंतु शरीर में पाबंदी है।
अंग तो दिव्य है,
परन्तु
भूख की दिव्यता ज्यादा है।
संसार की शतरंज में,
वह भी तो
एक मजबूर प्यादा है।

एक जिंदगी की राह में,
आधे में ही साथ छोड़ गया।
वंश निशानी गर्भ छोड़कर,
सात वचनों को तोड़ गया।
दो जीवों का भार लिए,
किस्मत को कोसती जाती है।
हाय अभागन-सी बनी जिंदगी,
फिर भी साँस क्यों आती है।
इंतजार में वह भी तो,
मजदूरी की आस लगाती है।
मजबूर भले ही कितनी ही वो,
पर मजदूरी कहां मिल पाती है।

एक की तो,दो साल से,
फसल खराब होती जा रही है।
कर्जा वह भी,
और पत्नी की बीमारी भी
कर्जा बढ़ा रही है।

सोच और कहानियां कई हैं,
पर उस पर भी तो
सबको नियमित मजदूरी भी,
नहीं मिल पा रही है।

दुनिया इक्कीसवीं सदी,
और अर्थव्यवस्था
ट्रिलियनों पार जाने को है।
परंतु मजदूर की मजबूरी,
गलफाँस-सी…
ना तो उगले और न निगले,
जाने को है।

दो जून कट जाए,
बस यही तमन्ना रखते हैं।
जीवन कट जाए पेट भर,
नहीं तो खाली पेट मरते हैं।
ना रहे कोई शिकवा,
और सरकारों,
तुम्हारा भी नाम हो जाए।
मिले हर पेट को रोटी,
और हर हाथ को काम
कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए॥

परिचय–आप लेखन क्षेत्र में डी.कुमार’अजस्र’ के नाम से पहचाने जाते हैं। दुर्गेश कुमार मेघवाल की जन्मतिथि-१७ मई १९७७ तथा जन्म स्थान-बूंदी (राजस्थान) है। आप राजस्थान के बूंदी शहर में इंद्रा कॉलोनी में बसे हुए हैं। हिन्दी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा लेने के बाद शिक्षा को कार्यक्षेत्र बना रखा है। सामाजिक क्षेत्र में आप शिक्षक के रुप में जागरूकता फैलाते हैं। लेखन विधा-काव्य और आलेख है,और इसके ज़रिए ही सामाजिक मीडिया पर सक्रिय हैं।आपके लेखन का उद्देश्य-नागरी लिपि की सेवा,मन की सन्तुष्टि,यश प्राप्ति और हो सके तो अर्थ प्राप्ति भी है। २०१८ में श्री मेघवाल की रचना का प्रकाशन साझा काव्य संग्रह में हुआ है। आपकी लेखनी को बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सेवा सम्मान-२०१७ सहित अन्य से सम्मानित किया गया है|

Leave a Reply