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बिरसा मुंडा हैं आदिवासी तेजस्विता के नायक

ललित गर्ग
दिल्ली

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बिरसा मुंडा जन्म जयन्ती-१५ नवम्बर विशेष….
किसी महापुरुष के कार्यों,अवदानों एवं जीवन का मूल्यांकन इस बात से होता है कि उन्होंने राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान किस सीमा तक किया,कितने कठोर संघर्षों से लोहा लिया। बिरसा मुंडा भी ऐसी ही एक युगांतरकारी शख्सियत थे,जिन्होंने आदिवासी जनजीवन के मसीहा के रूप में केवल २५ सालों में बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनाई। आज भी आदिवासी जनता बिरसा मुंडा को भगवान की तरह याद करती है। १९वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने आदिवासी जनजीवन अस्मिता एवं अस्तित्व को बचाने के लिये लम्बा एवं कड़ा संघर्ष किया। वे महान् धर्मनायक थे,तो प्रभावी समाज-सुधारक थे। वे राष्ट्रनायक थे तो जन-जन की आस्था के केन्द्र भी थे। सामाजिक न्याय,आदिवासी संस्कृति एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके अनूठे एवं विलक्षण योगदान के लिये न केवल आदिवासी जनजीवन बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति सदा उनकी ऋणी रहेगी।
आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से आज तक चला आ रहा है। १७६६ के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर १८५७ के गदर के बाद भी आदिवासियों के लिए संघर्षरत रहे। सन् १८९५ से १९०० तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। १८९५ में बिरसा ने अंग्रेजों की जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई भी छेड़ी थी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया। यह मात्र विद्रोह नहीं था,बल्कि यह आदिवासी अस्मिता,स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए महासंग्राम था। हालात तो आज भी नहीं बदले हैं, आज भी आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं। जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे,और न ही अब हैं। आजादी के सात दशकों के बाद भी आदिवासियों की समस्याएं नहीं,बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ वही है,जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा।
बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८७५ को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था। मुंडा रीति रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था। उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया,जहां वो खेतो में काम करके अपना जीवन चलाते थे। उनके पिता,चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा के पिता सुगना मुंडा जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे। बिरसा ने कुछ दिन तक चाईबासा के जर्मन मिशन विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की,परन्तु शालाओं में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था,वह बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। फिर क्या था। ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें निकाल दिया।
बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया,जब उनका स्वामी आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला। कहा जाता है कि १८९५ में कुछ ऐसी अलौकिक घटनाएँ घटीं,जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। १९वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे।
जन-सामान्य का बिरसा में काफी दृढ़ विश्वास हो चुका था,इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। उन्होंने सबसे अधिक बल अपनी संस्कृति एवं संस्कारों पर दिया,वे समानता एवं नैतिक आचरण के हिमायती थे। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे,वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे। उनका संघर्ष एक ऐसी व्यवस्था से था, जो किसानी समाज के मूल्यों और नैतिकता का विरोधी था। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लोगों की भीड़ जमा करने से रोका। बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूँ। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही वे फिर गिरफ्तार करके २ वर्ष के लिए हजारीबाग जेल में डाल दिये गये। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे,परन्तु बिरसा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाए-एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा। इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकाला,किन्तु बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आये। इस बार का आन्दोलन बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा। यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया।
भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे आदिवासी नायक हैं जिन्होंने झारखंड में अपने क्रांतिकारी विचारों से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। अंग्रेजों द्वारा थोपे गए काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। बिरसा जानते थे कि आदिवासी समाज में शिक्षा का अभाव है,गरीबी है,अंधविश्वास है। बलि प्रथा पर भरोसा है, समाज बंटा है,लोगों के झांसे में आ जाते हैं। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं,तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं। इन समस्याओं के समाधान के बिना आदिवासी समाज का भला नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने एक बेहतर नायक और समाज सुधारक की भूमिका अदा की। उन्हें पता था कि बिना धर्म के सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा। इसलिए,बिरसा ने सभी धर्मों की अच्छाइयों से कुछ न कुछ निकाला और अपने अनुयायियों को उसका पालन करने के लिए प्रेरित किया।
जनवरी १९०० में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। इसमें बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं। स्वयं बिरसा भी ३ फरवरी १९०० को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिये गये। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को जेल में डाल दिया। अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था,जिसके कारण ९ जून १९०० को बिरसा की मृत्यु हो गई, लेकिन लोक गीतों और जातिय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं।
आजादी के बाद हमने बिरसा मुंडा की शहादत को तो याद रखा,लेकिन हम उनके मूल्यों से दूर होते गये। हमारी सत्ताएं उसी व्यवस्था की पोषक होती गयीं,जिनके विरुद्ध उन्होंने लड़ाई लड़ी। उनकी जन्म जयन्ती मनाना तभी सार्थक होगा,जब हम उन्हें केवल पूजा का पात्र न बनाकर कर जीवन का हिस्सा बनाएं एवं उनके बताये मार्ग पर चलें।

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