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मतलबी राग

शिवम द्विवेदी ‘शिवाय’ 
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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किसका गीत सुनाऊँ,सब मतलबी राग हैं,
भीतर से दगाबाज़ बाहर फिर भी सजाये साज हैं।
आदमी संभलता तब,जब वक्त की लगती ठोकर है,
जो करता बातें सच्ची,सच्ची राह बताता
ये दुनिया उसे समझती जोकर है।
ये ज़माना किसी का नहीं,न ही इस पे हक़ किसी का,
यहाँ कुछ भी नहीं किसी का,सबकुछ पराया है ये सच इसी का
दिलो-दिमाग से कहीं दूर निकल गए,प्रेम,दया,करुणा…
न रहे जिम्मेदार,
रह गया मतलब-माया का दामन,हम हो गए बेदर्द,
कामचोर,गैर-जिम्मेदार।
बेवक़्त,बेवज़ह की जिल्लत झेलते-झेलते,
अन्तर्मन की शान्ति खो बैठे…
इस जमाने वाले चले थे उन्नति करने,
औरों की नक़ल करते-करते
खुद की स्मिता-संस्कार खो बैठे
चले थे हँसी के रथ पर खुशी की पताका उठाकर,
प्रेम-गीत की तृष्णा में,
वापस आते ही विरह-वेदना में रो बैठे।
हमने खूब गोते लगाए इस अथाह जनसागर में,
एक प्रेम का मोती तक ना मिला,
और हम कीमती वक़्त खो बैठे।
यहाँ हर शीतल चहरे के दिल में दहकती आग है,
हे परमेश्वर! लाज़वाब लिखे तूने मेरे भाग हैं,
तू ही बता किसका गीत सुनाऊँ…
यहाँ तो सब मतलबी राग हैं ||

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