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मनुष्य को कुछ ना कुछ तो करना ही होगा

ललित गर्ग
दिल्ली
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विश्व गौरैया दिवस (२० मार्च) विशेष…

सुदूर अतीत से पिछले एक-दो दशक तक हमारे घर-आँगन में फुदकने वाली गौरैया आज विलुप्ति की कगार पर है। घरों को अपनी चीं-चीं से चहकाने वाली गौरैया अब दिखाई नहीं देती। इस छोटे आकार वाले खूबसूरत एवं शांतिपूर्ण पक्षी का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे इसे देखते हुए बड़े हुआ करते थे। अब स्थिति बदल गई है। गौरैया के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफी कम कर दी है और कहीं-कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती। इस नन्हें से परिंदे को बचाने के लिए ही पिछले कुछ सालों से प्रत्येक २० मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ के रूप में मनाते आ रहे हैं, ताकि लोग इस चिड़िया के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें। भारत में गौरैया की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि, ढूंढे से भी यह पक्षी देखने को नहीं मिलता, इसलिए वर्ष २०१२ में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य-पक्षी घोषित कर दिया था।
विश्व गौरैया दिवस शहरी वातावरण में रहने वाले आम पक्षियों के प्रति जागरूकता लाने हेतु भी मनाया जाता है।
गौरैया के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा मानवता पर भी एक प्रश्नचिह्न भी है। गौरेया जैसे बेजुबान पक्षियों का बड़ी संख्या में विलुप्त होना पर्यावरण संतुलन के लिए तो बड़ा खतरा है ही, लेकिन इसका असर मानव जीवन पर भी होगा। यह धरती केवल इंसानों के लिए नहीं, बल्कि वन्य जीवों के लिए भी है, इसलिए पक्षियों का विलुप्त होना या मरना हमारे लिए चिन्ता का बड़ा कारण बनना चाहिए। मौजूदा समय में पशुओं एवं पक्षियों की संख्या का लगातार घटना अत्यन्त चिन्ताजनक स्थिति है। पक्षी विज्ञानी हेमंत सिंह के अनुसार गौरैया की आबादी में ६० से ८० फीसदी तक की कमी आई है। यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस’ ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है। आंध्र विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक गौरैया की आबादी में करीब ६० फीसदी की कमी आई है। यह हास् ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में हुआ है। पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है।
गौरेया पक्षी मानवीय लोभ की भेंट तो चढ़ ही रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के कारण भी इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए पक्षियों का शिकार एवं अवैध व्यापार जारी है। गौरैया जैसे पक्षी विभिन्न रसायनों और जहरीले पदार्थों के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से शरीर में पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनते हैं। भोजन की कमी होने, घोंसलों के लिए उचित जगह न मिलने तथा माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारण इनकी घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। जन्म के शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन कीट-पतंग होते हैं, पर आजकल हमारे बगीचों में विदेशी पौधे ज्यादा उगाते हैं, जो कीट-पतंगों को आकर्षित नहीं कर पाते। जीवन के अनेकानेक सुख, संतोष एवं रोमांच में से एक यह भी है कि हम कुछ समय पक्षियों के साथ बिताने में लगाते रहे हैं, अब ऐसा क्यों नहीं कर पाते ? क्यों हमारी सोच एवं जीवन-शैली का प्रकृति-प्रेम विलुप्त हो रहा है ? मनुष्य के हाथों से रचे कृत्रिम संसार की परिधि में प्रकृति, पर्यावरण, वन्यजीव-जंगल एवं पक्षियों का कलरव और जीवन-ऊर्जा का लगातार खत्म होते जाना जीवन से मृत्यु की ओर बढ़ने का संकेत है।
खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफी कम रह गई है। नीदरलैंड में तो इन्हें ‘दुर्लभ प्रजाति’ के वर्ग में रखा गया है। अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन-टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं। कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है। पक्षी विज्ञानियों के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें।
गौरैया आजकल अपने अस्तित्व के लिए मनुष्यों और अपने आसपास के वातावरण से काफी जद्दोजहद कर रही है। ऐसे समय में हमें इन पक्षियों के लिए वातावरण को इनके प्रति अनुकूल बनाने में सहायता करनी चाहिए। तभी ये हमारे बीच चहचहाएंगे। मनुष्य को गौरैया के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही होगा, वरना यह भी मॉरीशस के डोडो पक्षी और गिद्ध की तरह पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगे। भारत की संस्कृति में पक्षियों को दाना एवं पानी डालने की व्यवस्था जीवन-शैली का अंग रहा है, इन वर्षों में हमारी यह संस्कृति लुप्त हो रही है, जो गौरेया के विलुप्त होने का बड़ा कारण है।

मनुष्य का लोभ एवं संवेदनहीनता भी त्रासदी की हद तक बढ़ी है, जो वन्यजीवों, पक्षियों, प्रकृति एवं पर्यावरण के असंतुलन एवं विनाश का बड़ा सबब बना है। मनुष्य के कार्य-व्यवहार से ऐसा मालूम होने लगा है, जैसे इस धरती पर जितना अधिकार उसका है, उतना किसी ओर का नहीं-न वृक्षों का, न पशुओं का, न पक्षियों का, न नदियों-पहाड़ों-तालाबों का। दरअसल हमारे यहां बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है, पर गौरेया जैसे छोटे पक्षियों के संरक्षण पर उतना नहीं। वृक्षारोपण, जैविक खेती को बढ़ाकर तथा माइक्रोवेव प्रदूषण पर अंकुश लगाकर गौरेया को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। अब भी यदि हम जैव विविधता को बचाने का सामूहिक प्रयास न करें, तो बहुत देर हो जाएगी।

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