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मातृभाषा माध्यम की ओर लौटे योगी जी के कदम

प्राथमिक शिक्षा में हिन्दी…

मुम्बई (महाराष्ट्र)।

‘दैनिक जागरण’ में छपी खबर के अनुसार इस वर्ष स्वाधीनता दिवस के ठीक पहले योगी सरकार ने सभी विद्यालयों में फिर से माध्यम भाषा के रूप में मातृभाषा हिन्दी को बहाल कर दिया है। अब विद्यालयों में अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश के बच्चों के लिए योगी सरकार का स्वाधीनता दिवस पर यह एक अमूल्य तोहफा है। ‘हिन्दी बचाओ मंच’ और ‘अपनी भाषा’ योगी सरकार के इस फैसले का हृदय से स्वागत करती है और उन्हें धन्यवाद देती है।
दरअसल, सत्ता में आने के बाद अक्टूबर २०१७ में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रदेश के ५ हजार सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को एक झटके में अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया था। इसके लिए सबसे पहले प्रत्येक ब्लॉक से १-१ विद्यालय का चयन किया, उन्हें साधन संपन्न बनाया, अंग्रेजी के प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त किए और कहा कि अब गरीबों के बच्चे भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलेंगे एवं मुख्यधारा में शामिल होकर अमीरों के बच्चों का मुकाबला करेंगे। गरीब अभिभावक भी खुश थे, क्योंकि उनके पास इतने पैसे तो थे नहीं कि वे अपने बच्चों को इंग्लिश माध्यम के निजी विद्यालयों में भेज सकें। मैंने ‘हिन्दी बचाओ मंच’ की ओर से तत्कालीन उप मुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा से लखनऊ में मिलकर इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया था। मैंने उनसे कहा था कि, “आपकी सरकार के ये निर्णय हमारी आशाओं के ठीक विपरीत और चौंकाने वाले हैं तथा हमारे संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है। इतना ही नहीं, ये निर्णय देश के ८० प्रतिशत प्रतिभाशाली किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन और उन्हें देश की मुख्य धारा में शामिल होने से रोकना भी है।”
मैंने उन्हें याद दिलाया कि, “जब तक हमारी शिक्षा हमारी अपनी भाषाओं के माध्यम से नहीं होगी, तब तक गाँवों की दबी हुई प्रतिभाओं को मुख्य धारा में आने का अवसर नहीं मिलेगा। आजादी के बाद इस विषय को लेकर राधाकृष्णन आयोग, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग आदि अनेक आयोग बने और उनके सुझाव भी आए। सबने एक स्वर से यही संस्तुति की कि, बच्चों की बुनियादी शिक्षा सिर्फ मातृभाषाओं में ही दी जानी चाहिए। दुनिया के सभी विकसित देशों में वहां की मातृभाषाओं में ही शिक्षा दी जाती है। मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि, अपनी मातृभाषा में बच्चे खेल-खेल में ही सीखते हैं और बड़ी तेजी से सीखते हैं। उनकी कल्पनाशीलता का खुलकर विकास मातृभाषाओं में ही हो सकता है।
मैंने उनसे यह भी कहा था कि, “मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है। व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले, किन्तु सोचता अपनी भाषा में ही है। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं, फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनुदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में अनुवाद करना पड़ता है। इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है। अंग्रेजी माध्यम अपनाने के बाद से हम सिर्फ नकलची पैदा कर रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची ही पैदा कर सकती है।
जब अंग्रेज नहीं आए थे और हम अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते थे, तब हमने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिए, वेद और उपनिषद दिए, दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र दिया, चरक जैसे शरीर विज्ञानी और सुश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक दिए, पाणिनि जैसा व्याकरण और आर्य भट्ट जैसे खगोल विज्ञानी दिए, पतंजलि जैसा योगाचार्य और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिया। तानसेन जैसा संगीतज्ञ, तुलसीदास जैसा कवि और ताजमहल जैसी अजूबा इमारत दी। हमारे देश में तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे, जहां दुनियाभर के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे। इस देश को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था, जिसके आकर्षण में ही दुनियाभर के लुटेरे यहां आते रहे।” मैंने उनसे आग्रह किया था कि, “इस समय देश में करोड़ों ऐसे बच्चे हैं, जो शाला नहीं जाते। सबसे पहले उन्हें शाला भेजने की व्यवस्था कीजिए, प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती कीजिए , उन्हें जरूरी संसाधन उपलब्ध कराइए। पिछली सरकार की दुर्नीति के कारण आज शिक्षा का क्षेत्र भारी मुनाफे का क्षेत्र हो गया है। इस पर अंकुश लगाइए।”
मैंने उनसे यह भी कहा था कि, “अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा है-यह बहुत बड़ा झूठ है। यह गलत अफवाह फैलाई जाती है कि, ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती। जब मंदारिन (चीन), जापानी (जापान) और हिब्रू (इजराइल) जैसी कठिन भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीक की पढ़ाई हो सकती है तो हिंदी में क्यों नहीं हो सकती ? हिंदी विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर है। इसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि है, जिसमें जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। यह अत्यंत सहज और सरल भाषा है, किन्तु इसको माध्यम के रूप में न अपनाकर सरकारें देश की प्रतिभाओं का गला घोंट रही है।” मैंने उनसे कहा था कि, “अभिभावकों द्वारा अंग्रेजी की माँग के पीछे नौकरियों में अंग्रेजी का दबदबा है। जब सरकारें चपरासी तक की नौकरियों में भी अंग्रेजी अनिवार्य करेंगी तो अंग्रेजी की मांग बढ़ेगी ही। हमारे देश में छोटे से छोटे पदों से लेकर यूपीएससी तक की सभी भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व है। उच्चतम न्यायालय से लेकर २५ में से २१ उच्च न्यायालयों में सारी बहसें और फैसले सिर्फ अंग्रेजी में होने का प्रावधान है। मुकदमों के दौरान उसे पता ही नहीं होता कि वकील और जज उसके बारे में क्या सवाल-जबाब
कर रहे हैं। ऐसे माहौल में कोई अपने बच्चे को अंग्रेजी न पढ़ाने की भूल कैसे कर सकता है ?”
मैंने उन्हें याद दिलाया था कि, “आप जिस अमेरिका और इंग्लैंड की अंग्रेजी हमारे बच्चों पर लाद रहे हैं, उसी अमेरिका और इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए जाने वाले हर शख्स को आइइएलटीएस (इंटरनेशनल इंग्लिश लैंग्वेज टेस्टिंग सिस्टम) अथवा टॉफेल (टेस्ट आफ इंग्लिश एज फॉरेन लैंग्वेज) जैसी परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी अनिवार्य हैं। दूसरी ओर, हमारे देश के अधिकाँश अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालयों में बच्चों को अपनी भाषा बोलने पर दंडित किया जाता है और आप की सरकार कुछ नहीं बोलती।”
मैंने उन्हें स्मरण दिलाया था कि, “आपकी सरकार तो चुनौतीपूर्ण निर्णय लेने के लिए जानी जाती है। सरकारी नौकरियों, न्यायपालिका, कार्यपालिका से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाइए। इससे रातों-रात अंग्रेजी की जगह मातृभाषाओं के माध्यम से पढ़ने वालों की मांग बढ़ जाएगी। फिर आपको अंग्रेजी माध्यम की जगह प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषाओं के माध्यम से लागू करना पड़ेगा और आप देखेंगे कि इस देश की प्रतिभाएं फिर से दुनिया में अपनी कीर्ति-पताका फहराएंगी।”
उप-मुख्यमंत्री ने मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनी थी और अपनी सहमति देते हुए इस विषय पर पुनर्विचार का आश्वासन दिया था, किन्तु उसके बाद हमने देखा कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की संख्या ५ हजार से बढ़कर १५ हजार हो गई और हम निराश हो गए। मुझे लगा कि हमारा उक्त ज्ञापन रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया होगा।इस बीच मैं उत्तर प्रदेश के अंग्रेजी माध्यम वाले प्राथमिक विद्यालयों का अध्ययन करता रहा। मैंने पाया कि ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सारा ध्यान बच्चों को अंग्रेजी के व्याकरण और शब्द-भंडार रटाने में ही रहता था एवं बच्चे दूसरे विषयों में पिछड़ते जा रहे थे। ग्रामीण परिवेश के ये बच्चे अपने घरों में भोजपुरी, अवधी, ब्रजी, बुन्देली आदि बोलते और विद्यालय में विलायत की अपरिचित भाषा का व्याकरण और उसकी शब्दावली रटते। पिछले ५ वर्ष के अनुभवों के बाद योगी आदित्य नाथ को अब भली-भाँति समझ में आ गया है कि, उनकी सरकार द्वारा लिया गया उक्त निर्णय गलत था। उन्होंने अपने निर्णय पर पुनर्विचार करके प्रदेश के सभी हिन्दी भाषी बच्चों के हित की रक्षा की है।
जिन दिनों योगी सरकार ने सरकारी विद्यालयों को इंग्लिश माध्यम में बदलने का निर्णय लिया था, उन्हीं दिनों दिल्ली निगम के विद्यालयों सहित उत्तराखंड, तेलंगाना, राजस्थान, पंश्चिम बंगाल आदि की सरकारों ने भी इसी तरह के फैसले लिए थे। मुझे पूरी उम्मीद है कि, देश की उन सभी प्रान्तीय सरकारों पर योगी सरकार के इस फैसले का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और सभी राज्य सरकारें अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषाएं अवश्य बहाल करेंगी।

(सौजन्य:वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, मुम्बई)