विजयलक्ष्मी विभा
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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मुफ्तखोरी और राष्ट्र का विकास….
‘मुफ्तखोरी’ विकास का नकारात्मक पहलू है। जहाँ मुफ्तखोरी होती है, वहाँ तराजू का एक पलड़ा स्वत: धराशायी हो जाता है। मुफ्तखोरी एक परिवार में हो, समाज में हो या एक देश में हो, यह विकास के रास्ते को अवरुद्ध करने वाला कलंक है। विधाता ने जीव जगत को जन्म के साथ हाथ-पैर चलाने की क्षमता प्रदान की है। उसने हर प्राणी को श्रम करके क्षुधा शांत करने की जिज्ञासा और लालसा दे रखी है। नवजन्मा शिशु भी क्षुधा शांत करने के लिए रोता-चीखता है, हाथ-पैर पटकता है, शोर मचाता है और पेट के लिए भोजन कमा लेता है। जहाँ मुफ्तखोरी है, वहाँ “अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम” कहावत चरितार्थ होती है।
आज देश में मुफ्तखोरी का रिवाज तेजी से बढ़ रहा है। मुफ्तखोर इसे अपना मौलिक अधिकार समझने लगे हैं। उन्हें मुफ्त में पेंशन, मुफ़्त में राशन, मुफ्त में इलाज तथा मुफ्त में तमाम सुविधाएं मिलना ही चाहिए। गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए उन्हें कामचोर और निकम्मा बनाया जा रहा है। यदि उन्हें राष्ट्र सापेक्ष उपयोगी कार्य सौंपे जाएँ तो उनका और एक राष्ट्र का भला स्वत: होने लगेगा। समाज में पक्षपात और दो-भांति का व्यवहार करने वाले कानून से भी मुक्ति मिल जाएगी।
दूसरी ओर यह भी विचारणीय है कि मध्यम वर्गीय समाज में भी गरीबी चरम पर है, परन्तु उन्हें उच्चवर्गीय जीवन स्तर देने के कोई प्रयास नहीं किए जाते। निम्न वर्ग को मध्य में लाना और मध्यम वर्ग को उच्च में पहुँचाना विकास का प्रथम चरण कहा जा सकता है, परन्तु यहाँ सारी रस्साकसी निम्न और मध्यम वर्ग के बीच में ही कराई जाती है। मुफ्तखोरी और राष्ट्र के विकास को लेकर अनेक बिंदुओं पर विचार करने की आवश्यकता है।
आज यदि सर्वे किया जाए तो पता लगेगा कि हर घर में एक व्यक्ति कमाने वाला है और ४ मोबाइल पर दिनचर्या व्यतीत करते हैं। घरों का वातावरण अत्यधिक अशांतिपूर्ण हो रहा है। बच्चे घर के किसी काम में हाथ नहीं लगाते, क्योंकि वे मोबाइल को ज़िन्दगी का अनिवार्य हिस्सा मान चुके हैं । आज हर किसी को यह लगता है कि मोबाइल के बिना जीवन चल ही नहीं सकता। कुछ बच्चे मोबाइल में तरह-तरह के वीडियो देखने में दिन बिताते हैं। वे पढ़ाई के नाम पर माता-पिता और स्वयं के साथ धोखा करते हैं।
आज समय बदल चुका है। एक परिवार में ४ से अधिक सदस्य नहीं होते। माता-पिता और २ बच्चों के परिवार में भी जीवन स्तर दयनीय पाया जाता है। कुछ परिवार तो ऐसे हैं, जो २ बच्चों को भी उच्च शिक्षा नहीं दे पाते। ऐसे परिवारों को गरीबी रेखा से नीचे मान कर सरकार उन्हें मुफ्त में सेवाएं मुहैया कराती है, जिससे मुफ्तखोरी और कामचोरी ही बढ़ती है। यदि सरकार उन्हें उनकी शिक्षा के साथ-साथ उपयोगी रचनात्मक कार्यों की शिक्षा अनिवार्य कर दे, तो वे अपने विषय में परिपक्व होकर उसे जीविकोपार्जन का जरिया बना सकते हैं। इसके लिए कुकिंग, टेलरिंग, सेलिंग एवं वास्तु शास्त्र से सम्बंधित सभी चीजें सिखाई जा सकती हैं।
राष्ट्र के विकास के लिए शिक्षा को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा जाना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा कर्मठता पैदा करे, शिक्षा नयी-नयी सोच उत्पन्न करे, शिक्षा स्वयं उच्चस्तरीय जीवन शैली के प्रति जिज्ञासा बढ़ाए, शिक्षा स्वयं राष्ट्र निर्माता बनाए और शिक्षा स्वयं सिद्ध करे कि जहाँ लोग शिक्षित हैं, वहाँ राष्ट्र समृद्ध और विकासशील होता है। शिक्षा ही साहित्य है, शिक्षा ही संस्कृति है, शिक्षा ही धर्म है, शिक्षा ही इबादत है। शिक्षा को मनुष्य का सम्बल बनना चाहिए, फिर देश में मुफ्तखोरों की भीड़ क्यों बढ़ रही है, यह विचारणीय है।
मुफ्तखोरी बढ़ती है तो राष्ट्र स्वयं ह्रास की ओर जाता है। मानसिक अशांति और तनावपूर्ण जीवन उनका हो जाता है, जिन्हें
मोहवश मुफ्तखोरों को पालना पड़ता है। आज देखा यह जाता है कि शिक्षित युवा पीढ़ी भी मजदूर पिता के परिश्रम से कमाई गई रोटी बड़े गर्व से खाती है, क्योंकि वह शिक्षित है, इसलिए मजदूरी नहीं कर सकती और नौकरी उन्हें मिलती नहीं है। वे शिक्षित अयोग्य (बोझ) बन कर जीवन-यापन करते हैं। शिक्षा ही किसी राष्ट्र के विकास की नींव का पत्थर है, जिसे अत्यधिक मजबूत होना चाहिए। जो शिक्षा शिक्षित को जीविकोपार्जन नहीं करा सकती, वह शिक्षा नहीं है। वह तो दिखावा और छलावा है।
सच्चे शिक्षित स्वयं राष्ट्र के हित में नयी-नयी योजनाएं बना सकते हैं। राष्ट्र नियंताओं को सलाह दे सकते हैं, राष्ट्र में नये कार्यों की शुरुआत करा सकते हैं।
राष्ट्र नियंताओं का प्रथम कर्तव्य मुफ्तखोरी को हटाना है। व्यक्ति- व्यक्ति को श्रम करना सिखाया जाना चाहिए। बच्चों को श्रम करने की आदत डालनी चाहिए। श्रम की जगह योेगा ने ले ली है, परन्तु जो प्रकृति से आलसी और अकर्मण्य हो गए हैं, उनका योगा में भी विश्वास नहीं है। वे नहीं जानते कि जीवन के लिए शारीरिक और मानसिक श्रम दोनों आवश्यक है। कुल मिलाकर मुफ्तखोरी विकास मार्ग का जवलन्त रोड़ा है।
परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।