सरोज प्रजापति ‘सरोज’
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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भारतीय किसान के जीवन का आधार प्रकृति के साथ ही है। उसके सभी त्योहार उत्सव, हर्ष, उल्लास प्रकृति पर निर्भर है। किसान का नाचना-गाना प्रकृति के संग होता है। खेतों के सारे काम बुआई, निराई, गुड़ाई, सिंचाई मौसम के अनुसार किए जाते हैं। इसी सिलसिले में जब प्रकृति में बहार आती है, जब वृक्ष लताओं के साथ नई कोपलों, मंजरियों फल-फूलों से लद जाते हैं, शस्य श्यामला धरती, खेत-खलिहान अनाज से भर लहराने लगते हैं, कई प्रकार के जीव-जंतु भांति भांति की कलोलें करने लगते हैं, तभी मानवीय हर्षोल्लास भी बदल जाते हैं। यहीं से उत्सव की शुरूआत होती है। ऐसे ही एक त्योहार का नाम है ‘सायर। यह अश्विन मास की संक्रांति को मनाया जाता है। सायर संक्रांति का उत्सव हिमाचल के कुछ भागों जैसे-कुल्लू, मण्डी और कांगड़ा में पारिवारिक पर्व के रूप में मनाते हैं, जबकि सोलन, शिमला और सिरमौर में यह सामूहिक पर्व के रूप में मनाते हैं।
अश्विन मास शुरू हो, उसी दिन यह उत्सव बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। यह वर्षांत की समाप्ति का सूचक और सर्द ऋतु के आगाज़ के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह उत्सव नई फ़सल (खरीफ़) के आने का द्योतक है।इस उत्सव के पश्चात शुभ कार्य की शुरूआत की जाती है, जब पितृ पक्ष की शुरुआत न हो। नई फ़सल धान, बाजरा, ज्वार और मक्की की तोड़ाई-कटाई शुरू कर दी जाती है। ये दिन बड़े सुहावने लगते हैं।
कहते हैं कि भादो महीने में देवी- देवता डायनों (बुरी शक्तियों) से युद्ध लड़ने देवालयों से प्रस्थान कर लेते हैं, वहीं बरसात में नकारात्मक शक्तियों (डायनों) का कुप्रभाव भी अधिक रहता है। सायर संक्रांति पर देवी-देवताओं की भी देवालयों में वापसी हो जाती है। वापसी पर देवी-देवता गुर (देवलुओं) के माध्यम से देव डायनों की हार-जीत बताते हैं और किस घर में बुरी छाया पड़ी है, उसका उपाय भी गुरों के मुख से कहलवाया जाता है, साथ ही आने वाले समय में क्या-क्या परेशानियाँ होंगी, फ़सल कैसी होगी ? क्या डायनों द्वारा लागत में है…? या नहीं! आदि सब बताया जाता है ।
एक अन्य परंपरा के अनुसार नव विवाहित वधू पहले साल पड़ने वाले भादो महीने में सास-ससुर का मुख नहीं देखती है, क्योंकि ऐसा करने से वधू और सास-ससुर को बुरी शक्तियों के कारण अचानक परेशानी उठानी पड़ सकती है। इसी कारण वह वधू १ महीने के लिए माता-पिता व संबंधियों के घर चली जाती है। फिर सायर संक्रांति पर घर (ससुराल) बुला ली जाती है।
पशुपालक भी अपने और अन्य लोगों के पशुओं को ऊँचे दुर्गम इलाकों में (सावन माह में खेतों का काम खत्म करके) चराने ले गए होते हैं, वे भी उन पशुओं सहित साजे के दिन घर लौट आते हैं। अन्य लोगों के माल (पशुओं) को सकुशल पहुंचा दिया जाता है और अपना मेहनताना प्राप्त करते हैं।
पशु मालिक भी उन पशुओं को सैर पूजन टीका रोली करवा कर सैरू घास (ऐसी घास लम्बी कोमल चरागाह जो पूरी बरसात काटा नहीं गया हो, और विशेषतः सायर वाले दिन ही चराया जाता हो) चरने छोड़ दिया जाता है।
सायर के दिन सभी उत्साहित होते हैं। भादो महीने का अन्तिम दिन या सायर के एक दिन पहले (जिसे छोटी संक्रान्ति भी कहते हैं), सायर माता का विग्रह रूप मनाया जाता है। इसके लिए धान का पौधा उखाड़ कर उसके साथ मौसमी फल जैसे ककड़ी, पेठा (छोटा फूल), दाड़िम, मौसमी गलगल मक्की (हरी) फल और फूल इत्यादि इकट्ठा कर बाहर तुलसी माता की क्यारी के साथ किसी बर्तन या टोकरी में रख दिया जाता है। अगले दिन सुबह स्नान करने के बाद ब्रह्म मुहूर्त में घर के मुखिया द्वारा सारी सामग्री को उठा कर चुनरी ओढ़ाकर डोरी (कलावा) बांध कर अन्दर लाया जाता है और माता के विग्रह के सामने रख दिया जाता है, जिसे ‘सैर नदरेला’ कहा जाता है। फिर शुरू हो जाता है घर के अन्य सदस्यों का सायर पूजन का सिलसिला। सभी ख़ासे उत्साह के साथ स्नान आदि से निवृत होकर पूजन करते हैं। उसके बाद घर के सभी छोटे-बड़ों को अखरोट और पैसे, दुर्वा देकर शुभकामनाएं व बधाई दी जाती है। और इसी तरह गाँव-समाज के सभी छोटे-बड़ों को अखरोट पैसे दुर्वा देकर सुख- समृद्धि और खुशहाली की कामना देकर उत्सव मनाया जाता है।
सभी के घरों में तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। दिनभर आँगन में अखरोट का खेल खेला जाता है, पर अखरोट खाना वर्जित होता है। शाम होते-होते खूब सारे अखरोट कोई जीतकर थैले भर लेता है तो कोई हार कर जश्न मना रहा होता है, लेकिन होते सभी हर्ष उल्लास से। घर-घर जाकर नए- नए पकवान खाकर आपस में प्रेम से मिलते हैं, मस्त मगन रहते हैं।
इस प्रकार विविधता में एकता भारत की विशेषता है। एक ही त्योहार को विभिन्न प्रकार से मनाना सांस्कृतिक एकता को मजबूत करना है। इस त्योहार को सैर संक्रांति या सैर साजा भी कहते हैं। इस त्योहार को, जो बाहर नौकरी करते हैं वे भी छुट्टी लेकर परिवार के साथ त्योहार मनाने घर आते हैं। यह उत्सव लगभग १ महीने तक चलता है और नाच-गाना, खाने-खिलाने का यह सिलसिला चलता रहता है । विवाहित बेटी को भी सैर हिस्सा अखरोट, पकवान मौसमी फल पहुँचाए जाते हैं। पहले गाँव में कोई विशेष आदमी सैर पूजन करवाने आता था, वह घर-घर जाता था। उसे पैसे अन्न और कुछ वस्तुएं उपहार स्वरूप पूजन दी जाती थी, लेकिन समय के साथ यह रिवाज खत्म हो गया है।
भारत के अन्य राज्यों में भी किसी न किसी रूप में इस त्योहार को विभिन्न प्रकार से मनाते हैं। हमें अपने त्योहार उचित रीति-रिवाज बड़े हर्षोल्लास और श्रद्धा से मनाने चाहिए। त्योहार हमारी अमूल्य संस्कृति धरोहर हैं, और अपनी संस्कृति को संजोए रखना हमारा धर्म है।
परिचय-सरोज कुमारी लेखन संसार में सरोज प्रजापति ‘सरोज’ नाम से जानी जाती हैं। २० सितम्बर (१९८०) को हिमाचल प्रदेश में जन्मीं और वर्तमान में स्थाई निवास जिला मण्डी (हिमाचल प्रदेश) है। इनको हिन्दी भाषा का ज्ञान है। लेखन विधा-पद्य-गद्य है। परास्नातक तक शिक्षित व नौकरी करती हैं। ‘सरोज’ के पसंदीदा हिन्दी लेखक- मैथिली शरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा हैं। जीवन लक्ष्य-लेखन ही है।