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प्रसन्न समाजों में हम क्यों पिछड़ रहे?

ललित गर्ग
दिल्ली
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संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष २०२२ की पहली तिमाही में सालाना ‘वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट’ जारी की है। १४९ देशों की सूची में भारत का स्थान खुशी और प्रसन्नता के मामले में १३६ वां है, जो हैरानी का बड़ा कारण है। इस सूची में फिनलैंड लगातार पांचवीं बार अव्वल रहा है। डेनमार्क, आइसलैंड, स्विटजरलैंड और नीदरलैंड ने शीर्ष ५ में अपना स्थान बनाया है। हम प्रसन्न समाजों की सूची में क्यों नहीं अव्वल आ पा रहे हैं। गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश के चुनाव की सरगर्मियों एवं शोर-शराबे के बीच इसका आना जहां सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं नीति-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां समाज निर्माण में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार खुशहाल देशों की सूची में नीचे खिसक रहे हैं। क्या खुशियों को स्थापित करना सरकार की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए ? हमारी खुशी कैसी है, इसको मापना भी इसलिए जरूरी है कि हम एक नया भारत एवं सशक्त भारत निर्मित करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं। बिना खुशी एवं आनन्द के हमारी उपलब्धियां बेमानी होगी।
प्रश्न है कि हमारी खुशी का पैमाना क्या हो ? अधिकतर लोग छोटी-छोटी जरूरतें पूरी होने को ही खुशी मान लेते हैं। इससे उन्हें उस पल तो संतुष्टि मिल जाती है, उनका मन खिल जाता है, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकती। इच्छा पूरी होने के साथ ही उनकी खुशी भी कमजोर होने लगती है। खुशी एवं प्रसन्नता हम सबकी जरूरत है, लेकिन प्रश्न है कि क्या हमारी यह जरूरत पूरी हो पा रही है, ताजा आकलन से तो यही सिद्ध हो रहा है कि हम खुशी एवं प्रसन्नता के मामले में लगातार पिछड़ रहे हैं। विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि हमारा भारतीय समाज एवं यहां के लोग अपने ज्यादातर पड़ोसी समाजों से कम खुश है। फिनलैंड को लगातार पांचवे साल सबसे खुशहाल देश का तमगा मिला, हमें देखना होगा कि वहां ऐसी कौन-सी बातें है जो उन्हें अव्वल बनाती है।
खुशहाली सूचकांक के लिए अर्थशास्त्रियों का एक दल व्यापक स्तर पर शोध करता है, यह समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, भरोसा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता और उदारता आदि को आधार बनाता है। रिपोर्ट का मकसद विभिन्न देशों के शासकों को आईना दिखाना है कि उनकी नीतियां लोगों की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा रही हैं या नहीं। हमारा शीर्ष नेतृत्व निरन्तर आदर्शवाद और अच्छाई का झूठ रचते हुए सच्चे आदर्शवाद के प्रकट होने की असंभव कामना करता रहा है, इसी से जीवन की समस्याएं सघन होती जा रही है, नकारात्मकता का व्यूह मजबूत होता जा रहा है, खुशी एवं प्रसन्न जीवन का लक्ष्य अधूरा ही रह रहा है, इनसे बाहर निकलना असंभव-सा होता जा रहा है। दूषित और दमघोंटू वातावरण में आदमी अपने आपको टूटा-टूटा सा अनुभव कर रहा है। आर्थिक असंतुलन, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, बिगड़ी कानून व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार उसकी धमनियों में कुत्सित विचारों का रक्त संचरित कर रहा है। ऐसे जटिल हालातों में इंसान कैसे खुशहाल जीवन जी सकता है ?
यहां प्रश्न यह भी है कि आखिर हम खुशी और प्रसन्नता के मामले में क्यों पीछेे हैं, जबकि पिछले कुछ समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी को पूरी दुनिया ने स्वीकार किया है। भारत ने विश्व नेतृत्व करने की क्षमताओं को भी गढ़ा है। अनेक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों ने इस मामले में हमारी पीठ ठोंकी है। यही नहीं, खुद संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास के क्षेत्र में भारतीय उपलब्धियों को रेखांकित किया है। बावजूद इसके खुशहाली में हमारा मुकाम इतना नीचे होना आश्चर्यकारी है। दरअसल पिछले दो-ढाई दशकों में भारत में विकास प्रक्रिया अपने साथ हर मामले में बहुत ज्यादा विषमता लेकर आई है। जो पहले से समर्थ थे, वे और ताकतवर हो गए हैं। यानी लखपति करोड़पति हो गए और करोड़पति अरबपति बन गए। एकदम साधारण आदमी का जीवन भी बदला है लेकिन कई तरह की नई समस्याएं उसके सामने आ खड़ी हुई हैं। उसकी खुशियाँ कम हुई है, जीवन में एक अंधेरा व्याप्त हुआ है। यह अलग बात है कि इन बुनियादी मसलों के खड़े रहने पर भी जिन्दगी तो चलती ही रही है, मगर यह जीना भी कोई जीना है! ये सवाल ऐसे हैं जिनका सामना करते हुए व्यक्ति की खुशहाली में कमी आई है।
भारत के आम आदमी की खुशहाली में कमी होने का बड़ा कारण यह है कि सरकार ने गरीबों के लिए योजनाएं बनाई हैं, लेकिन वे योजनाएं राजनीतिक लाभ लेने तक सीमित हैं। यही कारण है कि अत्यंत निर्धनों के लिए जो योजनाएं बनी हैं, उनका जोर उस वर्ग को किसी तरह जिंदा रखने पर है। उनको उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है।
विकास की सार्थकता इस बात में है कि देश का आम नागरिक खुद को संतुष्ट और आशावान महसूस करे। स्वयं आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बने, कम-से-कम कानूनी एवं प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े, तभी वह खुशहाल हो सकेगा।
डिजिलीकरण, आर्थिक नवाचार जैसी घटनाओं से आम आदमी की समस्याएं अधिक बढ़ी है। समस्याओं के घनघोर अंधेरों के बीच उनका चेहरा बुझा-बुझा है। न कुछ उनमें जोश है न होश। अपने ही विचारों में खोए-खोए, निष्क्रिय और खाली-खाली से, निराश और नकारात्मक तथा ऊर्जा विहीन। हाँ सचमुच ऐसे लोग पूरी नींद लेने के बावजूद सुबह उठने पर खुद को थका महसूस करते हैं, कार्य के प्रति उनमें उत्साह नहीं होता।
इसके लिए अवसरवादी, अनैतिक एवं गलत मूल्यों के खिलाफ आवाज भी तो उठानी ही होगी। अगर हमने कुछ लोगों को भी अपराध और भ्रष्टाचार के विरोध में जागृत कर सके तो हम खुशहाल जीवन के सपने को साकार कर सकेंगे। राजनीति की दूषित हवाओं ने भारत की चेतना को प्रदूषित कर दिया है। हम सरकार के बदलते चेहरों को देखने के अभ्यस्त हो गए हैं, सत्ता के गलियारों में स्वार्थों की धमाचौकड़ी ने ही आम आदमी की खुशियों को छीन लिया है। बुराइयां तभी छूटती है, जब उनके गलत परिणामों का सही ज्ञान होता है और अच्छाइयां जीवन में स्थायित्व तभी पाती है जब उनके साथ निष्ठा, संकल्प एवं प्रयत्न की गतिशीलता और निरन्तरता जुड़ जाती है।
खुशहाल भारत को निर्मित करने के लिए आइये! अतीत को हम सीख बनाएं। उन भूलों को न दोहराएं, जिनसे हमारी रचनाधर्मिता जख्मी हुई है। एक सार्थक एवं सफल कोशिश करें खुशहाली को पहचानने की, पकड़ने की और पूर्णता से जी लेने की।

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