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सुन्दर विश्व का निर्माण सद्गुणों से ही

मुकेश कुमार मोदी
बीकानेर (राजस्थान)
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मनुष्य का सामाजिक जीवन अनेक जटिलताओं से भरा होकर भी सबको अतिप्रिय लगता है, इसीलिए अपने जीवन से लगभग हर किसी को मोह रहता है। हर कोई दीर्घायु होना चाहता है, किन्तु हम वास्तव में जीवित हैं या नहीं, इसका प्रमाण क्या है ? समय-समय पर आने वाली कठिनाईयों, समस्याओं और विघ्नों से जूझकर उन पर विजय प्राप्त करना ही जीवन्त होने का प्रमाण है। समस्याएँ ही जीवन को रोमांचक बनाती है। सामाजिक जीवन मनुष्य की मनोवृत्तियों के प्रभाव से प्रचलन में आई अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं के आधार पर संचालित होता है।
आज समाज में ऐसी अनेक व्यवस्थाएँ हैं, जो मनुष्य की दुषित मनोवृत्तियों का परिणाम है। अस्पताल, न्यायालय, पुलिस, अनाथालय, वृद्धाश्रम, वैश्यालय आदि की उत्पत्ति इतिहास के किस कालखण्ड से प्रारम्भ हुई, इसका कोई अन्दाजा तो नहीं लगाया जा सकता, किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि जबसे मनुष्य मन की वृत्तियाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से प्रभावित होकर दुषित होने लगी, तबसे इन सभी कलंकित व्यवस्थाओं का जन्म हुआ होगा। यदि मनुष्य की वृत्ति सम्पूर्ण रूप से शुद्ध होती तो उसे कहीं जाते समय घर को ताला-बंद करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यदि मनुष्य प्रकृति के नियमानुसार अपने शरीर का संचालन करता तो कोई रोग नहीं होता। यदि पारिवारिक व्यवस्था स्नेह, सम्मान और विश्वास के आधार पर चलती तो अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम आदि नारकीय व्यवस्थाएँ समाज में स्थापित नहीं हो पाती।
इसलिए, अपने अन्तर्मन को जरा टटोलकर स्वयं से कुछ प्रश्न अवश्य पूछें कि क्या मैं ऐसे समाज में जीना चाहता हूँ, जहां हमारे ही परिजन अस्पतालों में तड़पते हुए अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए नजर आएं ? क्या ऐसा समाज मुझे चाहिए, जहां लोग आपराधिक वृत्तियों से ग्रसित हो सामाजिक व्यवस्थाओं को बिगाड़ने के परिणाम स्वरूप कारागृहों में ठूंसे हुए नजर आएं ? क्या ऐसी दुनिया प्रिय लगेगी, जहां हमारे ही जन्मदाता वृद्धाश्रमों में अपने ही बच्चों के प्यार के लिए तरसते हुए जीवन के अन्तिम दिन व्यतीत करें ? क्या ऐसा संसार अच्छा लगेगा, जहां लोगों के अनैतिक सम्बन्धों के फलस्वरूप उत्पन्न शिशुओं के लिए अनाथाश्रम जैसी कुत्सित व्यवस्था हो ? क्या वैश्यालय जैसी घिनौनी व्यवस्था सुखद लगेगी, जहां समाज की अबोध बालिकाओं को चुराकर दूषित कार्य अपनाने के लिए विवश किया जाए ?
यह संसार का शाश्वत नियम है कि, मनुष्य अपनी वृत्तियों के स्तर के आधार पर अपने स्तर की वृत्तियों वाले लोगों से आकर्षित होता है और आकर्षित भी करता है। जिस प्रकार चोर को चोर, जुआरी को जुआरी, शराबी को शराबी सहज ही मिल जाते हैं, उसी प्रकार सज्जन, सद्गुणी और संत वृत्ति वालों को अपने स्तर के लोग मिलना असम्भव नहीं।
व्यक्ति के सद्गुण व दुर्गुण उसके व्यवहार से झलकते हैं। समान वृत्ति के लोग किसी न किसी तरह एक-दूसरे के सम्पर्क में आ ही जाते हैं। जिसे सद्गुण प्रिय है, वह किसी सद्गुणी व्यक्ति से ही सम्पर्क व सम्बन्ध स्थापित करेगा। गाय दूध भी देती है और गोबर भी देती है। एक उद्यान में विभिन्न प्रकार के फूलों के पौधे भी होते हैं, तो कहीं गन्दगी भी होती है। हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि भंवरा केवल फूलों पर ही मंडराता है। गन्दगी के ढ़ेर पर कीड़े, मक्खियाँ आदि जन्तु बैठे हुए मिलते हैं। इस प्रकार हमें जो प्रिय होगा, हम उसी की ओर आकर्षित होंगे।
अपनी मनोवृत्ति को परख कर जान सकते हैं कि, किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था में हम रुचि रखते हैं। यदि हमारी अपनी ही मनोवृत्ति ५ विकारों में जकड़ी है तो स्वस्थ समाज के निर्माण की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जिस प्रकार आपराधिक वृत्ति के लोग संगठित होकर आपराधिक योजनाओं को क्रियान्वित कर सकते हैं, तो शुद्ध वृत्ति के लोग भी संगठित रूप से स्वस्थ समाज के निर्माण की योजना को सफलतापूर्वक क्रियान्वित क्यों नहीं कर सकते ? यदि अपनी वृत्ति को दिन-प्रतिदिन संशोधित और सद्गुणों से भरपूर बनाया जाए तो समान वृत्ति वाले सद्गुणी लोगों से स्वतः ही हमारा सम्पर्क होने लगेगा, जो धीरे-धीरे एक संगठन का रूप लेगा।
जीवन यात्रा दुखदाई विघ्न रूपी काँटों से भरी होते हुए भी सुखद और शान्तिपूर्ण जीवन जीने की अभिलाषा भी हर मनुष्य मन में जागृत रहती है। नि:स्वार्थ और शुद्ध वृत्ति से एक-दूसरे का सहयोग ही सुखद और सुव्यवस्थित सामाजिक जीवन का आधार है। स्वयं के साथ-साथ औरों का जीवन भी सद्गुणों के आधार समस्या रहित बनाने में सहयोग करने से सुखी व समृद्ध समाज का निर्माण होता है।
सहयोग शब्द सुनते ही इसे प्राप्त करने की लालसा स्वतः ही मनुष्य मन में जागृत हो जाती है। इसलिए, हर कोई अपने जीवन की हर परिस्थिति, हर कार्य, हर समस्या में औरों का नि:स्वार्थ सहयोग पाना चाहता है, किन्तु सहयोग करने में हिचकिचाहट होने लगती है। एक आदर्श, स्वस्थ और सुव्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था एक-दूसरे के सहयोग से ही सम्भव है। सहयोग लेने का नियम यही है कि यह जितना दूसरों को दिया जाएगा, उतना ही प्राप्त होने की सम्भावना बढ़ती जाएगी।
आध्यात्मिक उर्जा और दिव्यता सम्पन्न व्यक्तियों के बाहुल्य से ही आदर्श, सुखी, समृद्ध, स्वस्थ और सुव्यवस्थित समाज की कल्पना साकार हो सकती है। एक ऐसा समाज जो पुलिस, कारागृह, अस्पताल, अनाथालय आदि अप्रिय व्यवस्थाओं की दुर्गन्ध से सर्वथा मुक्त हो, जहां एक दूसरे को सहयोग नि:स्वार्थ भाव से मिलता रहे।
इसलिए, व्यक्तिगत स्तर पर स्वयं में आध्यात्मिक उर्जा का सूत्रपात करने के लिए निज आत्मिक स्वरूप का चिन्तन कर दिव्य गुणों को जागृत करते हुए अपने व्यवहार कौशल से औरों को भी आध्यात्म के मार्ग पर चलने की सतत प्रेरणा सकारात्मक रूप से देते रहें। आध्यात्मिकता से सम्पन्न समान लाभों के प्रति आकर्षित होकर ऐसे व्यक्तियों का संगठन विकसित होता जाएगा, जिनके आपसी सहयोग से सम्पूर्ण विश्व एक परिवार का रूप लेकर स्वर्ग समान सुन्दर बन जाएगा।

परिचय – मुकेश कुमार मोदी का स्थाई निवास बीकानेर में है। १६ दिसम्बर १९७३ को संगरिया (राजस्थान)में जन्मे मुकेश मोदी को हिंदी व अंग्रेजी भाषा क़ा ज्ञान है। कला के राज्य राजस्थान के वासी श्री मोदी की पूर्ण शिक्षा स्नातक(वाणिज्य) है। आप सत्र न्यायालय में प्रस्तुतकार के पद पर कार्यरत होकर कविता लेखन से अपनी भावना अभिव्यक्त करते हैं। इनकी विशेष उपलब्धि-शब्दांचल राजस्थान की आभासी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक प्राप्त करना है। वेबसाइट पर १०० से अधिक कविताएं प्रदर्शित होने पर सम्मान भी मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज में नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना है। ब्रह्मकुमारीज से प्राप्त आध्यात्मिक शिक्षा आपकी प्रेरणा है, जबकि विशेषज्ञता-हिन्दी टंकण करना है। आपका जीवन लक्ष्य-समाज में आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की जागृति लाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-‘हिन्दी एक अतुलनीय, सुमधुर, भावपूर्ण, आध्यात्मिक, सरल और सभ्य भाषा है।’

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