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हिंदी के अध्ययन-अध्यापन को आकर्षक बनाने के लिए योजनाएं जोड़ी जाएँ

हैदराबाद (तेलंगाना)।

हिंदीभाषी राज्यों में प्रथम भाषा होने के कारण हिंदी के उच्च स्तरीय पाठ्यक्रमों के लिए छात्रों की कोई कमी नहीं है, लेकिन दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर भारत में हिंदी में एमए तथा शोध कार्य के लिए विद्यार्थियों में आकर्षण बहुत कम दिखाई देता है। हिंदी विभागों के समक्ष पहली चुनौती प्रवेश की समस्या से ही जुड़ी हुई है। इधर मानविकी विषयों के प्रति रुचि घटने का कारण ज्ञान की अपेक्षा कमाई के लिए शिक्षा प्राप्त करने की मनोवृत्ति से जुड़ा हुआ है। यह जरूरी है कि हिंदी के अध्ययन- अध्यापन को आकर्षक बनाने के लिए ‘पढ़ाई के साथ कमाई’ की योजनाएं जोड़ी जाएँ और हिंदी के छात्रों व शोधार्थियों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाए।
डॉ. ऋषभदेव शर्मा (पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) ने मुख्य वक्ता के रूप में यह वक्तव्य अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (इफ़्लु) के हिंदी विभाग में आयोजित ‘हिंदीतर प्रदेश; हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति’ विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में
दिया।
आपने हिंदीतर प्रदेशों में उच्च स्तर पर हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की चुनौतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि, यह भी जरूरी है कि परंपरागत पाठ्यक्रमों के अलावा प्रयोजनपरक छोटे-छोटे कार्यक्रम बनाए जाएँ। मंच विविध व्यवसायों में काम आने वाली हिंदी के भी स्वतन्त्र कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए, जैसे-चिकित्सा की हिंदी, अभियांत्रिकी की हिंदी, वकीलों के लिए हिंदी, प्रबंधकों के लिए हिंदी इत्यादि।

लगभग ३ दशक तक हिंदीतर भाषी देशी-विदेशी छात्रों में स्नातकोत्तर स्तर के अध्यापन और शोध निर्देशन के अपने अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि यहाँ हमें प्रायः ऐसे छात्रों को पढ़ाना पड़ता है, जिनमें से बहुतों की हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के ज्ञान संबंधी पृष्ठभूमि काफी कमजोर होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि आरंभिक कक्षाएँ भाषा कौशलों के विकास पर केंद्रित हों। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘ग’ क्षेत्र के विद्यार्थी के लिए हिंदी लगभग विदेशी भाषी होती है।

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