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हिन्दी से हिंग्लिश का सफर

सत्यजीत कुमार द्विवेदी
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मैं मानता हूँ कि भारत विविधताओं और अनेकता में एकता की कसौटी पर खरा उतरता है, लेकिन हम कई अन्य देशों को देखें, जहां पर एक राष्ट्र एक भाषा को परिमार्जित होते हुए देखा जाता है, जबकि वहां भी कई भाषाएं और बोलियां विद्यमान है, साथ ही वो देश अपनी भाषा के साथ कोई समझौता नहीं करते, जैसे-इजरायल, जापान, चीन, स्वीडन, रूस आदि। वहीं आप अपने देश को देखिए, जिसमें संवैधानिक तौर पर २२ भाषाओं की मान्यता तो दी, लेकिन किसी एक भाषा विशेषकर हिन्दी जो सबसे ज्यादा बोले जानी वाली देशी भाषा है, उसको आज तक हम राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित नही कर पाए। इसके पीछे यही तर्क दिया जाता है कि, इससे क्षेत्रीय असंतुलन का खतरा है। यही कारण है कि हमारी हिन्दी देखते ही देखते एक संपर्क भाषा के तौर पर विकसित करने के चक्कर में हिन्दी से हिंग्लिश बना बैठे। यानी हम अपनी हिन्दी के वैश्वीकरण के चक्कर में अपनी ही भाषा के साथ खिलवाड़ कर बैठे।
हिन्दी विश्व की प्राचीन भाषाओं में से एक है, जो विश्व में तीसरी सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है। भारत के अलावा हिन्दी और उसकी बोलियां विश्व के अन्य देशों में भी बोली, पढ़ी व लिखी जाती हैं। अमेरिका, मारीशस, नेपाल, गयाना, फिजी और संयुक्त अरब अमीरात में भी हिन्दीभाषी लोगों की बड़ी संख्या मौजूद है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार ५७ फीसदी जनसंख्या हिन्दी जानती है, यानी जिस देश की आधी से अधिक जनसंख्या हिन्दी जानती और बोलती हो, उस भाषा का वैश्वीकरण शायद समझ में नहीं आया, क्योंकि न तो हिन्दी का सही संरक्षण ही कर पाए और न ही उसे अंतराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के आस-पास ही पहुंचा पाए। इसके लिए हिन्दी भाषी भी कम दोषी नहीं हैं, क्योंकि आप खुद सोचिए कि हम और आप कितनी बार हिन्दी बोलते समय अंग्रेजी के कुछ प्रचलित शब्दों का बार- बार प्रयोग करते हैं। जैसे-टाइम, पार्टी, क्लास , बर्थ-सीट, क्लास रूम, प्रैक्टिस, ड्राइवर, कोल्ड ड्रिंक, लाइट, एरिया, ट्रेन, बस, पेपर, लेट, वाइफ, शुगर, बुक, एक्सरसाइज, एक्सीडेंट, हॉस्पिटल, एप्लीकेशन, लेटर, लिस्ट, शॉपिंग, हसबैंड, टेबल, चेयर, प्रॉब्लम, यूज, बाइक, बाथरूम, किचन, बेडरूम, रोड, गिफ्ट, पेन, लगेज, लॉस, एडवांस, पॉकेट, बैग, शर्ट, पैंट, वॉकिंग, वर्कबुक, मॉड्यूल, राइटिंग, सोशल, नेटवर्किंग, प्राइमरी, प्रमोशन, चैट, गैप, लर्निंग, सोशल डिस्टेंसिंग, डाइट, वेलकम, थैंक यू आदि प्रतिदिन इस्तेमाल होने वाले प्रचलित शब्द हैं। इन शब्दों को हम घर में, नियमित बोलचाल में, भाषण-व्याख्यान में, प्रशिक्षण में, शिक्षण में और जाने कहां-कहां तक प्रसारित करते हैं, यानी हम अपने वाग्य यंत्र को कम दु:ख पहुंचाएं, को ध्यान में रखकर हिंग्लिश का अनुसरण बोलने के लिए करते हैं, जो हमारी भाषा के साथ खिलवाड़ है। आप तमिल भाषा को ही ले लें, जो अतिप्राचीन भाषा है, लेकिन इसको बोलने वालों ने कभी भी भाषिक मिश्रण बनाने का प्रयास नहीं किया।
एक बार हिन्दी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानकारी कर लेनी चाहिए। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। वैसे तो हिन्दी भाषा की आदी जननी संस्कृत मानी जाती है। हिंदी संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश-अवहट्ट से गुजरती हुई हिंदी का रूप ले लेती है। हिन्दी भाषा को ५ उपभाषाओं में बाँटा गया है, जिसके अंतर्गत हिंदी की १७ बोलियां आती हैं। हिन्दी भाषा के विकास को जानने से पहले हम यह भी देख लेते हैं कि, हिंदी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई है ?, हिन्दी शब्द की उत्पत्ति सिंधु शब्द से हुई है सिंधु का तात्पर्य सिंधु नदी से है। जब ईरानी उत्तर पश्चिम से होते हुए भारत आए, तब उन्होंने सिंधु नदी के आसपास रहने वाले लोगों को हिन्दी कहा। ईरानी भाषा में ‘स’ को ‘ह’ तथा ‘ध’ को ‘द’ उच्चारित किया जाता था। इस प्रकार यह सिंधु से हिंदू बना तथा हिन्दू से हिन्द बना। फिर कालांतर में हिन्द से हिंदी बना, जिसका अर्थ होता है ‘हिंद का’-हिन्द देश के निवासी। बाद में यह शब्द ‘हिंदी की भाषा’ के अर्थ में उपयोग होने लगा। कई लोगों का यह सवाल होता है कि हिंशब्द किस भाषा का है। आपको बता दें कि हिंदी शब्द वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है हिंद देश के निवासी।

हिन्दी के आधुनिक काल में एक ओर उर्दू और दूसरी ओर ब्रजभाषा के प्रचार के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। १९वीं शताब्दी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा थी और गद्य की भाषा खड़ी बोली थी। २०वीं शताब्दी के अंत तक खड़ी बोली गद्य और कविता दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई थी। विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों ने इस युग में खड़ी बोली की स्थापना में बहुत मदद की। परिणामस्वरूप, खड़ी बोली साहित्य की प्रमुख भाषा बन गई।
आधुनिक काल में सम्पूर्ण वैश्वीकरण होने के कारण और सोशल मीडिया ने हमारी हिन्दी को हिंग्लिश के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए जाल फेंका और हम फंस गए। चूंकि, हिन्दी के समृद्ध अस्तित्व के काफी दिन बाद विश्व पटल पर १९६९ में अंतरजाल की शुरुआत हुई और हमारे देश में इसकी पहुंच ८० के दशक में देखने को मिलती है, लेकिन देखते ही देखते अंतरजाल हमारे जीवन के एक अंग के रूप में कार्य करने लगा, और यहीं से हिंग्लिश की शुरुआत हुई। कुछ सॉफ्टवेयर भी आए, जिन्होंने हमारे बहीखातों और मुनीम जी को चलता किया।
हमने सभी खोजी इंजनों को खुद ही मौका दिया कि, वो इस बदलाव के वाहक बने। इस बदलाव में गूगल जो एक खोजी इंजन है, आपके विचारों को पढ़कर कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का प्रयोग करके आपकी सुविधानुसार सामग्री उपलब्ध करा रहा है। इसने पूरी हिन्दी की नैसर्गिकता को ही बदल कर रख दिया, क्योंकि हम भारतीयों को पका-पकाया खाने की आदत हो चुकी है, इसलिए गूगल ने इसी का लाभ उठाया। गूगल ने अपने टाइपिंग के फॉन्ट भी बना लिए। ज्यों ही ये फॉन्ट प्रयोग में आया, हम मानक टाइपिंग फॉन्ट कृति देव को छोड़कर मंगल, कोकिला का प्रयोग करने लगे और हमने अपनी टाइपिंग की विरासत को बदल दिया। यानी मशीनों ने आपकी भाषाई समृद्धता को चुटकी में ही मसल कर रख दिया, क्योंकि हमें सब कुछ आसान चाहिए। हम तो सिर्फ अब हिन्दी की फुफकार ‘हिन्दी दिवस’ और कुछ अन्य कार्यक्रमों में हिन्दी बचाने की दुहाई देकर मारते है।
अगर हमें अपनी भाषा हिन्दी को बचाना है, तो इसकी शुरुआत मातृ शिक्षा से ही शुरू करनी होगी। हम ‘डॉगी’ क्यों कहते हैं, क्योंकि वो आसान है और किसी के सामने आपको एक अंग्रेजियत का सुखद अहसास कराता है, जबकि हिन्दी में तो इसी को शानदार, प्यारा कुत्ता भी तो कह सकते है। इसी प्रकार रंग को कलर न कहें, हम गाय को गाय ही कहें, काउ नहीं। इसी प्रकार पारिवारिक रिश्तों के नामों का भी उच्चारण कराएं। कभी कॉन्वेंट शिक्षा की नकल प्रारंभ में मत करें। यानी शुरुआत से ही शुद्ध हिन्दी की बात की जाएगी, तभी वाग्य यंत्रों में से विशेषकर अंग-जीभ टूटेगी और हम कठिन शब्दों के प्रयोग को आसान कर पाएंगे, नहीं तो अगली पीढ़ी में हिन्दी के कई शब्द उनको संग्रहालय में किसी सामग्री की तरह दिखेंगे और कहेंगे- देखो चिंटू ये शब्द तुम्हारे दादा जी प्रयोग करते थे, समझे!

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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