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२०५० की होली

विजयलक्ष्मी जांगिड़ ‘विजया’ 
जयपुर(राजस्थान)
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एक दिन स्कूल का
प्रोजेक्ट करते-करते,
बेटे ने पूछा-
“पापा ये रंग क्या होते हैं ?
कहाँ मिलते हैं ?”
मैं जो वाट्सएप पर,
अपनी ठीक-ठाक-सी
फोटो को रंग-बिरंगी बनाकर
स्टेटस पर डालने में
व्यस्त था,
सो कह दिया-
“गूगल से पूछो,बेटा।”
बेटे ने गूगल पर
खोज करते-करते
मुझसे फिर पूछा-
“मगर ये गूगल तो
अजीब से चहरे दिखा रहा है।
जब भी कर रहा हूँ खोज
इंसानी रंग ही बता रहा है।
घमंड का रंग काला,
दिखावटीपन का सफेद
और गुलाबी फैशनपरस्ती का,
प्रतीक बता रहा है।
और हाँ,पापा लाल तो कमाल है
अपराधिवृति का जंजाल है।
हरे के द्वारा निराशा और
पीले से आत्मविश्वास की कमजोरी दिख रही है।
नीला कुछ और ही कह रहा है,
महत्वाकांक्षा में बह रहा है।”
मैं हतप्रभ था,
हमारे जमाने में रंग यानी होली,
और आज इंसानी छल,कपट व गोली।
अब बच्चे को कैसे समझाऊँ ?
वो सच्चे,अच्छे रंग कहाँ से लाऊँ ?
उसे होली का मतलब कैसे बतलाऊँ… ?

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