ललित गर्ग
दिल्ली
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झारखण्ड में १ बच्चे को जन्म देने के तुरंत बाद कथित रूप से साढ़े ४ लाख रुपए में बेचने की शर्मनाक घटना ने संवेदनहीन होते समाज की त्रासदी को उजागर किया है। जहां इस घटना को माँ की संवेदनहीनता और क्रूरता के रूप में देखा जा सकता है, वहीं आजादी के अमृत काल में भी मानव-तस्करी की घिनौनी मानसिकता के पाँव पसारने की विकृति को सरकार की नाकामी माना सकता है। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के प्रति घटने वाली ऐसी संवेदनहीनता की घटनाओं पर रोक लगाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
इस देश में बच्चों के साथ जो हो रहा है, उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी। उन्हें खरीदने-बेचने और उनसे भीख मंगवाने का धंधा, अपंग बनाने का काम, खतरनाक आतिशबाजी निर्माण में उपयोग, अमानवीय व्यवहार, तंत्र-मंत्र के चक्कर में बलि और उनका यौन शोषण। देश के भविष्य के साथ यह सब हो रहा है, लेकिन जब सरकार को ही किसी वर्ग की फिक्र नहीं तो इन मासूमों की पीड़ा को कौन सुनेगा ? इस बदहाली में जीने वाले बच्चों की संख्या जहां देश में करोड़ों में है, वहीं जन्मते ही बच्चों को बेच देने की घटनाएं भी रह-रह कर नए बन रहे समाज पर कालिख पोतते हुए अनेक सवाल खड़े करती है। लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार मिलेंगे, लाखों बेघर, दर-दर की ठोकर खाते हुए आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर, निरक्षर और शोषित। बच्चों को बेच देने की घटनाएं कई बार ऐसी परतों में गुंथी होती हैं जिनमें समाज, परंपरागत धारणाएं, गरीबी और विवशता से लेकर आपराधिक संजाल तक के अलग-अलग पहलू शामिल होते हैं।
झारखण्ड की घटना में दंपति को पहले से ३ बेटियाँ थी। रूढ़ियों से संचालित धारणा के मुताबिक दंपति को १ बेटे की जरूरत थी। इसलिए उसने किसी अन्य महिला से उसका नवजात बेटा खरीद लिया। यानी मन में बेटा नहीं होने के अभाव से उपजे हीनताबोध और कुंठा की भरपाई के लिए कोई व्यक्ति पैसे के दम पर गलत रास्ता अपनाने से भी नहीं हिचकता। झारखण्ड, ओड़ीसा जैसे राज्यों के गरीब इलाकों में ऐसे तमाम लोग होते हैं, जिन्हें महज जिंदा रहने के लिए तमाम जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। विश्व की बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनते भारत की सतह पर दिखने वाली अर्थव्यवस्था की चमक की मामूली रोशनी भी उन तक आखिर क्यों नहीं पहुंच पाती है।
बेटों की इच्छा में गर्भ में पल रही बेटियों को चोरी-छिपे मारे जाने की घटनाएं भी सख्त कानूनों के बावजूद आम हैं, लेकिन जन्म ले चुकी बेटी को जीवित जलसमाधि दे देना या पुत्र की चाह में किसी का बच्चा खरीद लेना क्रूरता के नए किस्से कहता है। मासूम केवल अंधविश्वासों के शिकार नहीं होते, सयानों के लालच, परस्पर प्रपंच और संपत्ति के लिए किए जाने वाले षड्यंत्र भी उन्हें अपना शिकार बनाते हैं। बच्चों के प्रति संवेदनहीनता बरतने की बजाए स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाना चाहिए। समाज को अपना चेहरा देखना चाहिए। क्यों हम नन्हें बच्चों को अपनी विकृत मानसिकता एवं वीभत्स सोच का शिकार बनाते हैं ? चतरा (झारखंड) की त्रासद एवं विडंबनापूर्ण घटना ने फिर बच्चों के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता को दर्शाया है। आज देश में सबसे बदतर हालात में अगर कोई है तो, वे मासूम ही हैं। आज उन्हें अपना वर्तमान तक नहीं मालूम कि हम क्या हैं ? सच्चाई तो यह है कि आज कोई भी इन बच्चों के बारे में नहीं सोचता। इसका बड़ा कारण यह है कि बच्चों से नेताओं का मत बैंक नहीं बनता। इसलिए नेताओं को बच्चों से कोई मतलब नहीं है।
बच्चे किसी भी देश, समाज, परिवार की अहम कड़ी होते हैं, लेकिन शायद यह सब किताबी भाषाओं के शब्द हैं, जिन्हें सिर्फ किताबों में ही पढ़ना अच्छा लगता है। इसे देश की विडंबना कहें कि जन्म लेने के बाद बच्चों को बेच दिया जाता है या ऐसे बच्चों का एक बहुत बड़ा वर्ग चौराहों, रेलवे स्टेशन, गली-मोहल्ले में भीख मांगता मिल जाएगा। यों भी कह सकते हैं कि उनका जीवन आज अंधेरे में कट रहा है।
बच्चे को बेचे और खरीदे जाने में जितने लोग, जिस तरह शामिल होते हैं, वह नए बनते भारत के भाल पर एक बदनुमा दाग है।
निश्चित रूप से इस मामले में माँ की ममता एवं करूणा कठघरे में है, मगर सवाल है कि बच्चे को बेचने के पीछे क्या कारण होते हैं, खरीददार कौन होते हैं और ऐसी सौदेबाजी को आमतौर पर एक संगठित गतिविधि के रूप में अंजाम देने में क्यों सफलता मिल जाती है। क्यों कानून का डर ऐसे अपराधियों को नहीं होता ? क्यों सरकारी एजेंसियों की सख्ती भी काम नहीं आ रही है और लगातार ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यहां प्रश्न कार्रवाई का नहीं है, प्रश्न है कि ऐसी विकृत सोच क्यों पनप रही है ?