डॉ.शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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हम भारतीयों को अपने आराध्य देवों की पूजा करना सदा से प्रिय रहा है। कोई भोलेनाथ की आराधना करता है, कोई गजानन को प्रसन्न करता है, कोई मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का स्मरण करता है, कोई बजरंगबली, संकतमोचक हनुमान को, कोई नोटबंदी के दौर में एटीएम को, तो कोई हरियाली में छुपे ‘बजट’ को, लेकिन एक देवता हैं जो अनदेखे-अनसुने रह जाते हैं, जिनके योगदान के बिना देश की अर्थव्यवस्था ‘गति’ नहीं पकड़ सकती-सिविल इंजीनियर देवो भव!
ये देवता सड़कें बनाते हैं। सड़क क्या होती है ? बस एक समतल, गड्ढारहित, मजबूत रास्ता ? अरे नहीं! सड़कों में अर्थव्यवस्था का पेट्रोल भरा होता है और जितनी जल्दी वो सड़क गड्ढे में बदले, उतनी जल्दी अर्थव्यवस्था के इंजन में तेल पड़ता है। एक अच्छी सड़क सालों-साल टिकी रहे, तो किसी को कमाई कैसे होगी ? अब यदि कोई सड़क ६ महीने भी बिना टूटे टिकी रही तो इसका मतलब हुआ- ठेकेदार, अफसर, इंजीनियर सबकी कमाई बंद! सोचिए, कितनी बेरोजगारी फैल सकती है! इसलिए आवश्यक है कि सड़क ‘सड़क’ कम और ‘कमाई का सिलसिला’ अधिक हो। हर बार सड़क टूटेगी, हर बार टेंडर निकलेगा, हर बार फाइलें पास होंगी, हर बार रिश्वत का भुगतान होगा, हर बार जेसीबी की किराएदारी बढ़ेगी और हर बार एक नया ‘निर्माण पर्व’ मनाया जाएगा। यह पर्व सिर्फ निर्माण का नहीं होता, यह उत्सव होता है स्विस बैंक में खाता खोलने के एक और अवसर का। और इस पूरे चक्र के केंद्र में होता है-अर्थव्यवस्था की रीढ़-सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾गड्ढे-अर्थव्यवस्था के स्वर्ण द्वार-
अब बात करते हैं इन सड़कों पर बने पवित्र गड्ढों की। ये गड्ढे यूँ ही नहीं बनते। यह प्रकृति और प्रशासन की संयुक्त कलाकृति होती है। जैसे ही बरसात होती है, सड़क पर गड्ढे उग आते हैं-मानो धरती माँ अपने बच्चों के लिए कमाई के कुंए खोद रही हो। इन गड्ढों में गाड़ियाँ नहीं गिरतीं, अपितु गिरती हैं तो मौके की सौदेबाज़ियाँ। जब इन गड्ढों में स्कूटर या बाइक फिसलती है और किसी सज्जन की कोहनी या घुटना छिलता है-अस्पतालों का ओपीडी काउंटर मुस्कुराता है। डॉक्टर साहब एंटीबायोटिक से लेकर एमआरआई तक लिखते हैं, नर्सिंग होम में बिस्तर भरते हैं और मेडिकल स्टोर की बिक्री रिकॉर्ड तोड़ती है। यही नहीं, व्हील चेयर बनाने वाली कंपनियों का आँकड़ा भी ऊपर चढ़ता है।
और यह सब संभव होता है केवल एक गड्ढे की कृपा से! सोचिए, यदि सड़क सीधी-सपाट होती, तो कितने मरीज घर बैठे रहते! ऐसे में तो दुर्घटना नहीं होना, सीधे-सीधे राष्ट्रीय आय का नुकसान कहलाएगा। गड्ढों की पूजा होनी चाहिए और उन्हें जन्म देने वाले महान कर्ताओं का यशो-गान किया जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था की रीढ़
-सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾गाड़ियाँ टूटती हैं, जीडीपी उठती है-
अब मान लीजिए किसी गड्ढे में गिरने से कार का अलॉय व्हील टेढ़ा हो गया, बम्पर टूट गया या साइलेंसर पिट गया, यह तो ‘ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री रिवाइवल स्कीम’ का हिस्सा है। आप तो बस गाड़ी लेकर सर्विस सेंटर जाइए– मैकेनिक समाज आपके स्वागत में टूल किट के साथ तैयार मिलेगा। सिर्फ मैकेनिक ही नहीं, गाड़ी का बीमा करवाने वाली कंपनियाँ भी फिर से हरकत में आ जाती हैं। क्लेम पास होता है, एजेंट की कमीशन आती है, बीमा कंपनी नकारती है, आप कोर्ट जाते हैं- और कानून व्यवस्था से जुड़े वकीलों, मुंशी जी, कोर्ट क्लर्क और चायवाले तक की कमाई चालू हो जाती है। और यदि आप इस सबसे थक कर नई गाड़ी खरीद लें, तो शो-रूम में पटाखे फूटते हैं, कार मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के मजदूरों को बोनस मिलता है और बैंक वालों को एक नया ऋण पास करने का अवसर।
कुल मिलाकर, एक गड्ढा ही है, जो वाहन उद्योग की चक्की को चलाता है। इस असाधारण सृजन के पीछे जो महान आत्माएं होती हैं, वो कोई और नहीं-अर्थव्यवस्था की रीढ़– सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾फटे कपड़े, फटी जेब-मगर मजबूत अर्थव्यवस्था-
अब सोचिए, जब किसी दुर्घटना में आपके कपड़े फट जाते हैं, या जूते सड़क पर ही अंतिम साँसें लेने लगते हैं, तो यह मात्र फैशन में बदलाव नहीं, बल्कि वस्त्र उद्योग में पुनर्जीवन की प्रक्रिया है। आप नया पैंट खरीदते हैं, नई चप्पल लाते हैं- और एक बार फिर जीएसटी का पहिया घूमने लगता है। फिर वह पैसा दुकानदार के पास जाता है, वह अपना कर देता है (या नहीं देता) और फिर वह धन वापसी करता है सर्कुलेशन में-क्या यह किसी चमत्कार से कम है ? गरीब मजदूर जो नई चप्पल बनाने वाली फैक्ट्री में काम करता है, उसे ओवरटाइम मिलता है और उससे वह बच्चा ट्यूशन जाता है-किसने कहा सड़क का गड्ढा सिर्फ गाड़ी गिराने के लिए होता है ? यह तो समाजिक उन्नयन का उत्प्रेरक है।
फटे कपड़ों से कोई शर्म नहीं आती, शर्म तो तब आनी चाहिए जब कोई सड़क ३ साल तक न टूटे और हमारी अर्थव्यवस्था भूखी मरने लगे। तो हर गिरने वाले को गिरते देख मुस्कराइए-अर्थव्यवस्था की रीढ़-सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾दुर्घटना में मृत्यु-एक अंतिम ‘अर्थ’ यात्रा-
अब ज़रा कल्पना कीजिए कि सड़क के किसी पवित्र गड्ढे ने अपनी सारी शक्ति का प्रयोग कर किसी भोले नागरिक को ईश्वर से मिलवा दिया। पहले तो यह समाचार स्थानीय चैनलों पर ब्रेकिंग बनता है-“गड्ढा खा गया एक और जान”, फिर उसके बाद शुरू होती है उस दिवंगत आत्मा के माध्यम से अर्थव्यवस्था की अंतिम सेवा। शव वाहन बुक होता है-ड्राइवर की कमाई। उसके बाद लकड़ी वाले से लकड़ी खरीदी जाती है-लकड़ी माफिया की कमाई। फिर शव को नहलाने, लपेटने, सजाने और श्मशान ले जाने वाले कर्मचारियों की पूरी टीम सक्रिय होती है- सामूहिक रोजगार का सुअवसर। श्मशान घाट का पुजारी अपने संस्कृत के त्रुटिपूर्ण उच्चारण के साथ अंतिम संस्कार कराता है, घी, कपूर, हवन सामग्री, फूल-माला, चंदन, अगरबत्ती, भस्म और गंगाजल का बाजार अचानक गर्म हो जाता है।
इतना ही नहीं, मृत्यु प्रमाण-पत्र, बीमा क्लेम जैसी प्रक्रियाओं में लगे वकील, नोटरी, बाबू और दलालों की पूरी एक अर्थव्यवस्थात्मक श्रृंखला तैयार हो जाती है। कहिए, अगर वो सड़क का गड्ढा न होता, तो इतने लोगों को रोजगार कहाँ से मिलता ? और सबसे बड़ी बात- एक नागरिक कम हो गया यानी सरकार पर अनुदान, पेंशन, गैस सिलेंडर और राशन जैसी योजनाओं का बोझ भी कम हो गया। और जिस पर बोझ कम हो, वो तेज़ी से दौड़ सकता है-यही हमारी विकासशील अर्थव्यवस्था का मूलमंत्र है।
इस महान गड्ढा-साधना के मूल में कौन ? वही, जो इंजीनियरिंग कॉलेज से पास होकर हर ईंट को स्वर्ण में बदल देता है- अर्थव्यवस्था की रीढ़-सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾सड़क नीति बनाम देश नीति-चुप रहो…-
आपने कई बार देखा होगा कि जैसे ही कोई मंत्री जी आते हैं, सड़कें चकाचक हो जाती हैं, मानो सड़क भी मंत्री की अगवानी में तैयार हो रही हो, परंतु जैसे ही मंत्री जी चले जाते हैं, सड़कें फिर उसी रूप में लौट आती हैं-एक कच्ची याद की तरह।
यह कोई संयोग नहीं, यह नियोजन है- ‘सड़क नीति’। हर ५ साल में वही सड़क दोबारा बनाना, फिर दोबारा तोड़ना और फिर उस पर ‘विकास यात्र’ की तस्वीर लगाकर अखबार में विज्ञापन देना, यह हमारी लोकतांत्रिक रीति है। सोचिए, अगर सड़क एक बार बनी और १० साल तक नहीं टूटी तो टेंडर की दुकान बंद, अफसर का हफ्ता बंद और ठेकेदार का बंगला सपना बन जाएगा।
इतना ही नहीं, जिस तरह नेता सड़कों पर नारियल फोड़ते हैं, वैसे ही अर्थव्यवस्था का संतुलन भी इन्हीं सड़कों की नियमित तोड़फोड़ पर टिका होता है। आपको भले सड़क पर झटका लगे, पर जीडीपी को रफ्तार मिलती है। यहाँ सड़कों के गड्ढे मात्र ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर डिफेक्ट’ नहीं, बल्कि ‘राजनीतिक कर्मयोग’ हैं, और जिस हाथ ने इसे डिज़ाइन किया, वही सबसे महान– अर्थव्यवस्था की रीढ़-
सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾बौद्धिक विमर्श में इंजीनियरिंग की विनम्र उपस्थिति-
हमारे देश के विश्वविद्यालयों में एक बड़ा विमर्श यह भी होता है कि “साहित्य किस ओर जा रहा है”, “समाज में नैतिकता का हास क्यों हो रहा है”, या “युवाओं में बेरोजगारी क्यों बढ़ रही है”, लेकिन कोई नहीं पूछता कि सिविल इंजीनियर क्या सोच रहे हैं ? क्योंकि सिविल इंजीनियर का काम सोचने का नहीं, गड्ढे बनाने का है। और वो ऐसा बखूबी कर रहे हैं। किसी कवि की कविता भले नहीं छपे, किसी कलाकार की पेंटिंग बिके न बिके, लेकिन सिविल इंजीनियर की बनाई सड़क अगर टूटी तो हर चैनल उसका साक्षात्कार बिना बुलाए ही प्रसारित कर देता है-“देखिए जनता किस कष्ट में है।”
उनका नाम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती, क्योंकि उनका काम स्वयं बोलता है-और चीख़ता है भी। उनका बनाया ‘कायम रहने वाला अस्थायी निर्माण’ एक वैश्विक उदाहरण है कि ‘कैसे निर्माण को ध्वंस से जोड़ा जाए। तो अब देश के सभी शोधकर्ताओं, चिंतकों, समाजविज्ञानियों और अर्थशास्त्रियों को एक नमन करना चाहिए, परंतु उससे पहले उन सिविल इंजीनियरों को प्रणाम करना चाहिए, जिनके कारण चर्चा की विषयवस्तु ही बनी– अर्थव्यवस्था की रीढ़-सिविल इंजीनियर देवो भव!
◾निष्कर्ष-हे इंजीनियर! तुम न होते तो…-
मान लीजिए एक सुबह आँख खुली और देश में सभी सिविल इंजीनियर गायब हो गए-तो क्या होगा ? सड़कें वैसे की वैसे टिकी रहेंगी, गड्ढे नहीं बनेंगे, बीमा कंपनी के कर्मचारी बेरोजगार हो जाएंगे, अस्पतालों की ओपीडी खाली पड़ेगी, टायर बनाने वाली फैक्ट्रियाँ बंद हो जाएंगी और सबसे बड़ी बात-हमारी विकास दर धीमी हो जाएगी।
इसलिए यह स्पष्ट है, कि एक अच्छा सिविल इंजीनियर वह नहीं जो सड़क बनाए, बल्कि वह है जो अर्थव्यवस्था की गति बनाए रखे- गड्ढों के माध्यम से, दुर्घटनाओं के सहारे और पुनर्निर्माण के नाम पर। तो आइए, अगली बार जब कोई गड्ढा देखकर आपकी रीढ़ में दर्द उठे, तो उस दर्द को दर्द न मानिए, राष्ट्रीय प्रगति की खुजली है। और जब आप अगली बार किसी टूटी सड़क पर गिरें, तो उठिए, मुस्कराइए और जोर से बोलिए– “अर्थव्यवस्था की रीढ़-सिविल इंजीनियर देवो भव!”