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बौद्ध धर्म और अहिंसा-एक विश्लेषण

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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सम्पूर्ण जगत में हमें अगर शांति स्थापित करनी है, या अमन-चैन कायम करना हो तो हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन कर सकते हैं। अहिंसा का सामान्य अर्थ है हिंसा न करना। इसका व्यापक अर्थ हैं-किसी भी प्राणी को तन,मन, कर्म वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुंचाना। मन में किसी का अहित ना सोचना किसी को कटु वाणी द्वारा भी नुकसान न पहुंचाना। कर्म से भी किसी भी प्राणी की हिंसा न करना।
शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती है। ऐसी हिंसा का न होना अहिंसा कहलाती है। अहिंसा के ३ रूप हैं,जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैl किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है,वाणी से कष्ट न करना वाचिक अहिंसा है,तथा किसी का मन से बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है, हमें मनसा,कर्माणा तथा वाचा तीनों रूप की हिंसा से बचना चाहिए। आज के समय में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने से लिया जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ती है। अहिंसा को परमधर्म भी कहा जाता है,इसमें मन के सभी वैर,भय और आशंकाएं दूर हो जाती है। भगवान बुद्ध के समय समाज में जिस तरह की परिस्थितियां थी,वे बहुत भयावह थीl बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव से पूर्व अर्थात ऋग्वेदयुगीन भारत में हिंसा का स्वरूप ज़ोरों से था। प्राचीन वैदिक युगीन पंडितों ने आडम्बरवाद,पोंगा पंडितवाद,यज्ञ,निरीह जानवरों की हत्या आदि कई शर्मनाक बातों को स्थान दियाl प्राचीन वेदों में यह बताकर जानवरों की हत्या,नरबलि आदि दी जाती थी कि,यह सब देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए दी जाती है। इस तरह का शोषण प्राचीन समय में किया जाता था। इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि,यह कोरी काल्पनिक,मिथ्या बात हमें प्रतीत होती हैl हिंसा के नाम पर वैदिक ब्राह्मण,यज्ञ का आयोजन करते समय जंगलों से कई तरह के पेड़ों को काट देते थे। पूर्व वैदिक युग की साधना यज्ञ-विधानात्मक थी,यह सुविदित है। यज्ञ का स्वरूप क्या है,अक्सर प्रचलित आधुनिक दृष्टि के अनुसार आदिम युग के धर्मों में यज्ञ,बलिदान और जादुई अनुष्ठान का समवेत रूप था। देवता को मनुष्यवत मानकर उसे प्रसन्न करने के लिए बलिदान दिया जाता आता और उसके अनुष्ठान में जादुई शक्ति मानी जाती थी। वैदिक-यज्ञ में बलि गोरस,अनाज से बने अन्न,सोम अथवा पशु की हो सकती थी और उसे अग्नि में डालकर देवता को अर्पित किया जाता था। इसी प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा सम्पन्न किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ में अश्व को स्त्री के संभोग करवाया जाता थाl इसमें असहनीय पीड़ा उस स्त्री को होती थी,उस पीड़ा में कई बार तो स्त्रियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी,उनके यज्ञ करने से जो धुआँ निकलता था,उससे हजारों जीव-जन्तु भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते थेl इस प्रकार प्राचीन समय में हिंसा के प्रति-रूप मौजूद थे। बलहीन,आधारहीन मनुष्यों के ऊपर भी शास्त्र सम्मत बनाकर हिंसा की जाती थी, जिसका साक्ष्य हमें ऋग्वेद के दशम मण्डल पुरुषसूक्त के सुत्त में मिलता हैl सूक्तों की भाषा छांदश भाषा थी-
ब्राह्मण उसका मुख था,बाँहें राजन्य बनीं। उरु उसके वैश्य,पैरों से शूद्र जन्माll
इस प्रकार की ऋचाओं को स्थायित्व रूप प्रदान करके कमजोर और बेसहारा लोगों के ऊपर हिंसा को अवतरित किया गया। इसमें ब्राह्मण को ब्रह्म के मुख से,क्षत्रिय को उसके भुजाओं से, वैश्य को उसकी जंघाओं से तथा इन सबकी सेवा करने के लिए शूद्र का जन्म पैरों से हुआ,ऐसा वेदों में वर्णन मिलता है। हिंसा को इस प्रकार वैदिक धर्म में धर्मसम्म्त बना दिया गया,शूद्रों के साथ अत्याचार और हिंसा को भी स्थायित्व प्रदान किया गया। जिस प्रकार प्राचीन समय में कई प्रकार की हिंसा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दी जाती थीl वर्तमान समय में हमें कई प्रकार के उदाहरण मिलते हैंl इसी प्रकार विश्व के अन्य धर्मों में भी जीव-हत्या की जाती है,वे सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के नित्य-प्रतिदिन पशुओं की हत्या करते हैं और वे इसे अपने धर्म-ग्रन्थों से जोड़ते हैं और तर्क देते हैं कि ऐसा हमारे धर्म में लिखा गया है।
भगवान बुद्ध अपने प्रारम्भिक उपदेशों में यह बात स्पष्ट करते हैं कि,व्यक्ति कोई भी कर्म चाहे वह अच्छा हो या बुरा हो,वह कर्म उस मनुष्य की तृष्णा का परिणाम होता है। बौद्ध धर्म में बताया गया है कि,हमारे मन में अच्छे संकल्प होने चाहिएl हमारे कर्म सम्यक होने चाहिए,किसी दूसरे व्यक्ति को उनसे कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। इसी के साथ हमारी वाणी भी सम्यक होनी चाहिए,उसे सुनकर किसी दूसरे मनुष्य को कष्ट नहीं होना चाहिए। बौद्ध धर्म के अनुसार बुरा सोचना या मन में किसी के लिए द्वेष रखना किए गए कर्म से घातक होता है। बुरा सोचना भी एक प्रकार की हिंसा का एक प्रतिरूप है। इस प्रकार मन का उदाहरण हमें ‘धम्मपद’ में मिलता है-
`मनोपुब्बगमा धम्मा,मनोसेट्ठा मनोमया
मनसा च पदुट्ठेन,भासति वा करोति वा
ततो न दुःखमन्वेति,चक्क व वहतों पदll

 मनोपुब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया
 मनसा च पसन्नेंन,भासति वा करोति वा
 ततो च सुखमन्वेति,छाया व अनपायिनीll` 
       इस प्रकार धम्मपद की गाथाओं से यह स्पष्ट होता है कि,जो मनुष्य दूषित मन से जो कुछ भी बोलता है या कुछ गलत कार्य करता है,उन अकुशल कर्मों से उत्पन्न दुःख उस मनुष्य का उसी तरह पीछा करता है,जैसे किसी बैलगाड़ी का पहिया गाड़ी में जुते हुए बैलों के पैरों का पीछा करता है।इसी प्रकार कुशल कर्मों से उत्पन्न सुख उसका उसी प्रकार पीछा करता रहता है,जैसे निरंतर साथ रहने वाली मनुष्य की छाया उसका पीछा किया करती हैl इस प्रकार बौद्ध धर्म का पवित्र ग्रंथ इस बात की शिक्षा से प्रारम्भ होता है कि,व्यक्ति अकुशल कार्यों को अपने मन में उत्पन्न होने पर ही सम्पन्न करता है।  
      इसी प्रकार बौद्ध धर्म में अहिंसा के प्रतिरूप को लेकर सम्पूर्ण बौद्ध धर्म में हिंसा को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। त्रिपिटक में दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त में अहिंसा को स्पष्ट किया गया है। भगवान बुद्ध बताते हैं कि,श्रमण गौतम किसी बीज या प्राणी के नाश से विरत रहते हैं। कच्चे अन्न ग्रहण से तथा कच्चे माँस के ग्रहण से विरत रहते हैंl इसी प्रकार भगवान कहते हैं कि,कितने ब्राह्मण (ग्रहस्थों द्वारा)श्रद्धापूर्वक दिए गए भोजन खाकर इस प्रकार के सभी बीजों और सभी प्राणी के नाश में लगे रहते हैं। अहिंसा को लेकर भगवान बुद्ध ने जो बौद्ध धर्म का संविधान है,उसमें स्पष्ट किया-विनय पिटक के अंतर्गत कई सारे नियमों का संकलन किया गया है, जिनमें पाराजिक के अंतर्गत मनुष्य हत्या का नियम है। इस नियम के अंतर्गत जो भिक्षु मनुष्य को प्राण से मारे या स्व-हत्या के लिए हथियार खोज लाए,या चित्त संकल्प से अनेक प्रकार से मरने की जो तारीफ करें,या मरने के लिए प्रेरित करें तो वह भिक्षु पाराजिक का दोषी होता है।
       दूसरे नियम के अंतर्गत संघादिसेस आता हैl इसमें आवास को लेकर नियम है कि हमें हमारे आवास ऐसे जगह व इस प्रकार उनकी निर्मिती करनी चाहिए,जिसमें जीव हिंसा न हो।
   अहिंसा को स्पष्ट करते हुए अगले नियम `पाचित्तिय` में भगवान बुद्ध स्पष्ट करते हैं कि,जो भिक्षु जमीन खोदता है या खुदवाता है,उसमें कई जीवों की अकाल मृत्यु हो जाती है। 
        इस प्रकार आगे `सेखीय` में भी अहिंसा का प्रतिरूप देखने को मिलता हैl जानबूझकर अपने प्राणों के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के प्राणों को लेना, यह कार्य भी भिक्षु नियम संहिता के विपरीत आचरण है। भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही मांस खाने की मनाही की थी,किंतु कई लोग आक्षेप लगाते हैं कि, भगवान ने अपने अंतिम समय मांस खाया थाl यह बात पूरी तरह बौद्ध धर्म पर कालिख पोतने जैसी है,क्योंकि पहली बात भगवान बुद्ध ने हमेशा से ही जीव हत्या प्राणी ह्त्या का विरोध किया,तथा उसे अपने धर्म में कोई स्थान नहीं दिया
   इस प्रकार स्पष्ट है कि,बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध ने अहिंसा की शिक्षा को सम्पूर्ण बताया। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में अहिंसा का हमें वर्णन मिलता है,इसलिए वर्तमान समय में अन्य धर्मो के ग्रंथों को ध्यान में रखते हुए बौद्ध धर्म ग्रंथों की शिक्षा को समाज में फैलाने की जरूरत है,तभी आज का मनुष्य सही मायने में प्रगति करेगा। 

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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