अनमोल प्रण बन गए
विजयलक्ष्मी विभा इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)************************************ रात भर जो उबलते दृगों में रहे,प्रात होते ही क्यों ओस कण बन गये। खौलते नीर की तो व्यथा है यही,न गगन ही मिले न मिले ये महीधूम्र बन-बन के उड़़ता रहे वायु में,न मिले पंथ कोई दिशा में सही।पर मिले जो ठिकाना तो औषधि बने,न मिले कोई मंजिल तो ब्रण बन गये। … Read more